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त्रिषष्टितमः सर्गः
द्रौपदीप्रभृतयस्तदङ्गनाः संयमं प्रति निविष्टबुद्धयः । पाण्डवाननुगता जनन्यपि संसृतौ विगतरूक्षधीं सती ॥७७॥ द्वादशात्मभिदयासतामनुप्रेक्षयानुमतया हलायुधः ।
व्यापृतोऽभवदखण्डित स्थितिः सत्रिदण्डदृढखण्डनोन्मुखः ॥७८॥ तन्त्र नित्यमिति यत्र मूर्च्छना स्थानदेहधनसौख्यबन्धुषु । तंत्र किंचिदपि नास्ति निस्यता आत्मनोऽन्यदिति चिन्तयत्यसौ ॥ ७९ ॥ मृत्युदुःखपरिपीडितस्य मे व्याघ्रवक्त्रमृगशावकस्य वाँ ।
बान्धवा न शरणं धनादि वा धर्मतोऽन्यदिति चिन्तनामितः ॥८०॥ नैयोनि कुल कोटिकूटसंसारचक्रमिह यान्ति जन्तवः । प्रेरिताः कटुककर्मयन्त्रकैः स्वामिभृत्य पितृपुत्रपूर्वताम् ॥ ८१ ॥ एक एव भवत्प्रजायते मृत्युमेति पुनरेक एव तु । धर्ममेकमपहाय नापरः सत्सहाय इति चैकता स्मृतिः ॥ ८२ ॥ नित्यता मम तनोरनित्यता चेतनोऽह्मपचेतना तनुः ।
अन्यता मम शरीरतोऽपि यत्तत्किमङ्ग ! पुनरन्यवस्तुनः ॥ ८३ ॥ शुक्रशोणित कुबीजजन्म के सप्तधातुमय के त्रिदोषके । कः शुचं ' तदनुवाशुचौ शुची रज्यते स्वपरयोः शरीरके ॥ ८४ ॥
ओर जिनकी बुद्धि लग रही थी ऐसी द्रौपदी आदि स्त्रियाँ तथा संसारसे जिसकी बुद्धि विमुख हो गयी थी ऐसी माता कुन्ती भी पाण्डवोंके पीछे-पीछे जा रही थीं ॥७७॥
इधर अखण्ड चारित्रके धारक एवं मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिरूप तीन दण्डों का दृढ़ता के साथ खण्डन करनेमें तत्पर मुनिराज बलदेव, सज्जनोंको इष्ट अनित्यत्व आदि बारह अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवनमें व्याप्त हो गये ||७८ || वे विचार करने लगे कि जिन महल, शरीर, धन, सांसारिक सुख और बन्धुजनोंमें 'ये नित्य हैं', यह समझकर ममताभाव उत्पन्न होता है, उनमें आत्माके सिवाय किसी में भी नित्यता नहीं है, सभी क्षणभंगुर हैं || ७९ || जिस प्रकार व्याघ्र के मुखमें पड़े मृग बच्चे को कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार मृत्यु के दुःखसे पीड़ित मेरे लिए धर्मके सिवाय न भाई-बन्धु शरण हैं और न धन ही शरण है। इस प्रकार वे अशरण अनुप्रेक्षाका चिन्तवन करते थे ||८०|| नाना योनियों और कुलकोटियोंके समूहसे, मुक्त इस संसाररूपी चक्रके ऊपर चढ़े प्राणी, महाविषम कर्मरूपी मन्त्रसे प्रेरित हो स्वामी से भृत्य और पितासे पुत्र आदि अवस्थाओको प्राप्त होते हैं ॥ ८१ ॥
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यह जीव अकेला ही उत्पन्न होता है और अकेला ही मृत्युको प्राप्त होता है । एक धर्मको छोड़कर दूसरा इसका सहायक नहीं है । इस प्रकार वे एकत्व अनुप्रेक्षाका चिन्तवन करते ||२|| मैं नित्य हूँ और शरीर अनित्य है । मैं चेतन हूँ और शरीर अचेतन है । जब शरीरसे
मुझमें भिन्न है ब दूसरी वस्तुओंसे भिन्नता क्यों नहीं होगी ? || ८३|| यह अपना अथवा पराया शरीर रज, वीर्यरूप निन्द्य निमित्तोंसे उत्पन्न है, सप्तधातुओंसे भरा है एवं वात, पित्त, कफ इन तीन दोषोंसे युक्त है इसलिए ऐसा कौन पवित्र आत्मा होगा जो इस अपवित्र शरीर में
१. 'पाण्डवाननुगता जनन्यपि स्निग्धता विगतरूक्षधीस्तु या ' ख. । 'पाण्डवाननुगता विमोहिता संसृतो विगतरूक्षधीषु या ।।' ङ. । २. व्यावृतो म । ३. 'वा स्याद् विकल्पोपमयोरिवार्थेऽपि समुच्चये' इत्यमरः । ४. तदनुगाशुची म. ।
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