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चतुःषष्टितमः सर्गः ज्ञानपञ्चकसिद्धये ते दर्शनत्रिकशुद्धये । चारित्रतपसां शुद्ध प्रवृत्ताश्चरणोद्यताः ॥१४॥ स्यात्सामायिकचारित्रं सर्वत्र समभावकम् । सर्वसावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानमखण्डितम् ॥१५॥ स्वप्रमादकृतानर्थप्रबन्धप्रतिलोपने । सम्यक् प्रतिक्रिया या सा छेदोपस्थापना मता ॥१६॥ विशिष्टा परिहारेण शुद्धिर्यत्र प्रतिष्ठिता। परिहारविशुद्धयाख्यं चारित्रं तत्प्रकथ्यते ॥१७॥ संपरायाः कषायास्तु यत्र ते सूक्ष्मवृत्तयः । तत्सूक्ष्मसापरायाख्यं चारित्रं पापनोदनम् ॥१८॥ यथाख्यातमाख्यातमिति वा परिभाषितम् । सुशान्तक्षीण मोहं तच्चारित्रं मोक्षसाधनम् ॥१९॥ तपः षोढा भवेद्वाह्य मथानशनपूर्वकम् । अभ्यन्तरं तपः षोढा प्रायश्चित्तादिकं मतम् ॥२०॥ संयमादिकसध्यानसिद्विदष्टफलाप्तये । रागोच्छित्त्यै तपो नानाविधं शनशनं स्मृतम् ॥२१॥ दोषोपशमसंतोषस्वाध्यायध्यानसिद्धये । संयमायावमोदयं प्रजागरणकारणम् ॥२२॥ भिक्षार्थिमुनिसंकल्पा ये वेश्माामिगोचराः । आशानिवृत्तये वृत्तिपरिसंख्यानमिष्यते ॥२३॥ घृतक्षीरादिवृष्यात्मरसानां विरहः परम् । तपो रसपरित्यागो निद्रेन्द्रियजयाय सः ॥२४॥ पशुस्त्रीप्रविविक्तेषु स्थानेषु प्रासुकेषु यत् । वर्तनं व्रतशुद्धयै तद्विविक्तशयनासनम् ॥२५॥ त्रिकालयोगप्रतिमास्थानपूर्वः स्वयंकृतः । कायक्लेशः सुखत्यागो मोक्षमार्गप्रभावनः ॥२६॥
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विरक्त हो गुणवती आर्यिकाके समीप दीक्षा धारण कर ली ॥१३।। इस प्रकार वे सब, पाँच ज्ञान, तीन सम्यग्दर्शन, चारित्र एवं तपकी शुद्धिके लिए प्रवृत्त हो चारित्रपालन करनेके लिए उद्यत हो गये ||१४।। चारित्रके सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात ये पांच भेद हैं। सब पदार्थों में समताभाव रखना तथा सर्वप्रकारके सावद्ययोगका पूर्ण त्याग करना सामायिक चारित्र है ।।१५।। अपने प्रमादके द्वारा किये हुए अनर्थका सम्बन्ध दूर करने लिए जो समीचीन प्रतिक्रिया होती है वह छेदोपस्थापना चारित्र है ।।१६।। जिसमें जोव हिंसाके परिहारसे विशिष्ट शुद्धि होती है वह परिहारविशुद्धि नामका चारित्र कहलाता है ।।१७।। साम्पराय कषायको कहते हैं, ये कषाय जिसमें अत्यन्त सूक्ष्म रह जाती है वह पापको दूर करनेवाला सूक्ष्म साम्पराय नामका चारित्र है ।।१८।। जहाँ समस्त मोहकर्मका उपशम अथवा क्षय हो चुकता है उसे यथाख्यात
अथाख्यात चारित्र कहते हैं। यह चारित्र मोक्षका साक्षात् साधन है ||१९|| तपके बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे दो भेद हैं। इनमें बाह्य तप अनशन आदिके भेदसे छह प्रकारका है और आभ्यन्तर तप भी प्रायश्चित्त आदिके भेदसे छह प्रकारका माना गया है |२०||
संयमको आदि लेकर समीचीन ध्यानकी सिद्धिरूप प्रत्यक्ष फलकी प्राप्तिके लिए तथा रागको दूर करने के लिए आहारका त्याग करना अनशन तप है। यह वेला, तेला आदिके भेदसे नाना प्रकारका स्मरण किया गया है ||२१|| वात, पित्त आदि दोनोंका उपशम, सन्तोष, स्वाध्याय और ध्यानकी सिद्धिके लिए तथा संयमकी प्राप्तिके लिए भखसे कम भोजन करना अवमोदर्य तप है। यह जागरणका कारण है-इस तपके प्रभावसे निद्राको अधिकता दूर हो जाती है ॥२२॥ भोजनविषयक तृष्णाको दूर करने के लिए भिक्षाके अभिलाषो मुनि जो घर तथा अन्न आदिसे सम्बन्ध रखनेवाले नाना प्रकारके नियम लेते हैं वह वृत्तिपरिसंख्यान नामका तप है ।।२३।। निद्रा और इन्द्रियों को जोतने के लिए जो घो. दध आदि गरिष्ट रसोंको त्याग किया जाता है वह रसपरित्याग नामका तप है ।।२४।। व्रतकी शुद्धि के लिए पशु तथा स्त्री आदिसे रहित एकान्त प्रासुक स्थानमें उठना, बैठना विविक्तशयनासन तप है ॥२५॥ आतापन, वर्षा और शीत ये तीन योग धारण करना तथा प्रतिमायोगसे स्थित होना इन्हें आदि लेकर बुद्धिपूर्वक जो सुखका त्याग
१. चरणोदिताः ङ.। २. तीक्ष्ण म. ३. -दिष्ट ग. ।
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