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हरिवंशपुराणे
aisa कस्य बहिरङ्गहिंसकः स्वान्तरङ्गशुभकर्म रक्षकम् । " आयुरेव निजत्राणकारण तत्क्षये भवति सर्वथा क्षयः ॥ ६९ ॥ संपदत्र करिकर्णचञ्चलां संगमाः प्रियवियोग दुःखदाः । जीवितं मरणदुःखनीरसं मोक्षमक्षयमतोऽर्जयेद्बुधः ॥७०॥ पूर्वरूपधरवंशदेवतो लब्धबोधिरिति वीतमोहकः ।
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निर्बभौ हलधरस्तदाधिकं धूतमेघपटलः शशी यथा ॥ ७१ ॥ पाण्डवैः सह जरासुतान्वितैस्तुङ्गयभिख्य गिरिमस्तके ततः । संविधाय हरिदेहसंस्क्रियां जारसेयसुवितीर्णराज्यकः ॥ ७२ ॥ शृगमेवमचलस्य तस्य तैः संगतैः सविततं ततः श्रितः । संगहान कृतनिश्चयो बलो भङ्गुरं समधिगम्य जीवितम् ॥७३॥ पल्लव स्थजिननाथशिष्यतां संसृतोऽस्म्यहमिह स्थितोऽपि सन् । इत्युदीर्य जगृहे मुनिस्थितिं पञ्चमुष्टिभिरपास्य मूर्धजान् ॥ ७४ ॥ पारणा पुरसंप्रवेश ने वैपरीत्यमवगम्य योषिताम् । सत्रियोगभृतो रणव्रती संतुतोष वनभैक्ष्यवर्तनैः ॥ ७५ ॥ पाण्डवास्तु बहुराजकन्यकाः संप्रदाय हरिवंशभूभुजे । पुत्रयोजित निजश्रियोऽगमन् पल्लवाख्यविषयं जिनं प्रति ॥ ७६ ॥
कह चुके थे । संसारकी स्थितिको जानते हुए भी आपने कृष्णका मृतशरीर धारण कर छह माह व्यर्थ ही बिता दिये || ६८ || इस संसार में कौन किसका बहिरंग हिंसक है ? अपना अन्तरंग शुभ कर्म हो रक्षक है। यथार्थ में आयु ही अपनी रक्षाका कारण है, उसका क्षय होनेपर सब प्रकार से क्षय हो जाता है ||६९ || सम्पत्ति हाथी के कानके समान चंचल है। संयोग, प्रियजनोंके वियोग से दुःख देनेवाले हैं और जीवन मरणके दुःखसे नीरस है । एक मोक्ष हो अविनाशी है अतः विद्वज्जनों को उसे ही प्राप्त करना चाहिए ||७० || इस प्रकार पूर्वंरूपको धारण करनेवाले अपने वंशके देवसे जिन्हें रत्नत्रयकी प्राप्ति हुई थी और जिनका मोह दूर हो गया था ऐसे बलदेव, मेघपटलसे रहित चन्द्रमाके समान उस समय अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे ||७१ ||
तदनन्तर जरत्कुमार और पाण्डवोंके साथ उन्होंने तुंगीगिरिके शिखरपर कृष्णका दाहसंस्कार कर जरत्कुमारको राज्य दिया और जीवनको क्षणभंगुर समझ परिग्रहके त्यागका निश्चय कर साथियों के साथ उसी पर्वत के शिखरका आश्रय लिया । उन्होंने, 'मैं यहाँ रहता हुआ भी पल्लव देशमें स्थित श्री नेमिजिनेन्द्रकी शिष्यताको प्राप्त हुआ हूँ' यह कहकर पंचमुष्टियोंसे शिरके बाल उखाड़कर मुनि दीक्षा धारण कर ली ।। ७२- ७४ ॥ बलदेव शरीरसे अत्यन्त सुन्दर थे । इसलिए पारणाओंके लिए नगर में प्रवेश करते समय स्त्रियोंकी विपरीत चेष्टा होने लगी । यह जान त्रियोगको धारण करनेवाले रणव्रती बलदेव 'यदि वनमें भिक्षा मिले तो लेंगे अन्यथा नहीं' ऐसी प्रतिज्ञा कर सन्तोषको प्राप्त हुए ॥ ७५ ॥ पाण्डवोंने हरिवंशके राजा जरत्कुमार के लिए बहुत-सी राज कन्याएँ दीं, अपने पुत्रोंके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपी ओर उसके बाद जिनेन्द्र भगवान्को लक्ष्य कर सबके सब पल्लव देशको ओर चले गये ॥ ७६ ॥
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१. आयुकर्म म । २. संपदोऽत्र करिकर्णचञ्चलाः ख । ३. पूर्वरूपधरवासुदेवतो क । ४. सविततस्ततः स्थितः क. । ५. इत ऊर्ध्व म., क. पुस्तकयोरधोलिखितः पाठोऽधिको वर्तते । 'प्रेष्य सूर्यपुरसंज्ञिकं निजानात्मजांश्च सुनिधाय शासने । त्यक्तरागमपि पाण्डुनन्दनाः संविभज्य निजसंपदो मुदा ॥'
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