________________
एकषष्टितमः सर्गः
७६१
निर्गत्य निर्गती पुर्या ज्वालालीलीढवेश्मनः । रुदित्वा कण्ठलग्नौ तौ दक्षिणां दिशमाश्रितौ ॥ ९० ॥ इतोऽपि वसुदेवाद्या यादवाश्च तदङ्गनाः । प्रायोपगमनं प्राप्ताः संप्राप्ता बहवो दिवेम् ॥९१॥ केचिच्चरमदेहास्तु बलदेवसुतादयः । गृहीतसंयमा नीता जृम्भकैर्जिनसन्निधिम् ॥ ९२ ॥ यदूनां यादवीनां च धर्म्यभ्यानवशात्मनाम् । सम्यग्दर्शन शुद्धानां प्रायोपगममाश्रिताम् ॥९३॥ बहूनां दह्यमानानामपि देहविनाशनः । ॐ जातो हुताशनो रौद्रो न तु ध्यानविनाशनः ॥ ९४॥ आर्तष्यानकरः प्रायो मिथ्यादृष्टिषु जायते । उपसर्गश्चतुर्भेदो न सद्दृष्टेस्तु जातुचित् ॥९५॥ आगाढे वाप्यनागाढे मरणे समुपस्थिते । न मुह्यन्ति जना जातु जिनशासनभाविताः ॥ ९६ ॥ मिथ्यादृष्टेः सतो जन्तोर्मरणं शोचनाय हि । न तु दर्शनशुद्धस्य समाधिमरणं शुचे ॥९७॥ मृतिर्जातस्यै नियता संसृतौ नियतेर्वंशात् । सा समाधियुजो भूयादुपसर्गेऽपि देहिनः ॥ ९८ ॥ वन्याः शिखिशिखाजा लकवली कृतविग्रहाः । अपि साधुसमाधाना ये त्यजन्ति कलेवरम् ॥९९॥ तपो वा मरणं वापि शस्तं स्वपरसौख्यकृत् । न च द्वैपायनस्येव स्वपरासुखकारणम् ॥१००॥ परस्यापकृतिं कुर्वन् कुर्यादेकत्र जन्मनि । पापी परवधं स्वस्य जन्तुर्जन्मनि जन्मनि ॥१०१॥ कषायवशग: प्राणी हन्ता स्वस्थ भवे भवे । संसारवर्धनोऽन्येषां भवेद्वा वधको न वा ॥ १०२ ॥
ज्वालाओं के समूह से जिसके महल जल रहे थे ऐसी नगरीसे निकलकर दोनों भाई पहले तो गतिहीन हो गये- इस बातका निश्चय नहीं कर सके कि कहाँ जाया जाये ? वे बहुत देर तक एक-दूसरे के कण्ठसे लगकर रोते रहे । तदनन्तर दक्षिण दिशा की ओर चले ||१०|| इधर वसुदेव आदि यादव तथा उनकी स्त्रियाँ - अनेक लोग संन्यास धारण कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए ||९१ ॥ बलदेव के पुत्रोंको आदि लेकर जो कुछ चरमशरीरी थे उन्होंने वहीं संयम धारण कर लिया और उन्हें जृम्भकदेव जिनेन्द्र भगवान् के पास ले गये ||१२|| जिनकी आत्मा धर्मंध्यानके वशीभूत थी -- जो सम्यक दर्शन से शुद्ध थे, तथा जिन्होंने प्रायोपगमन नामक संन्यास धारण कर रखा था ऐसे बहुत से यादव और उनकी स्त्रियां यद्यपि अग्निमें जल रही थीं तथापि भयंकर अग्नि केवल उनके शरीरको नष्ट करनेवाली हुई, ध्यानको नष्ट करनेवाली नहीं ॥९३ - ९४|| मनुष्य, तिथंच, देव और जड़के भेद से चार प्रकारका उपसगं प्रायः मिथ्यादृष्टि जीवोंको ही आर्तध्यानका करनेवाला होता है, सम्यग्दृष्टि जीवको कभी नहीं ||१५|| जो मनुष्य जिनशासनको भावनासे युक्त हैं वे सम्भावित और असम्भावित किसी भी प्रकारका मरण उपस्थित होनेपर कभी मोहको प्राप्त नहीं होते ॥ ९६ ॥
मिथ्यादृष्टि जीवका मरण शोकके लिए होता है परन्तु सम्यग्दृष्टि जीवका समाधिमरण शोकके लिए नहीं होता ||१७|| संसारका नियम ही ऐसा है कि जो उत्पन्न होता है उसका मरण अवश्य होता है, अतः सदा यह भावना रखनी चाहिए कि उपसगँ आनेपर भी समाधिपूर्वक ही मरण हो ||१८|| वे मनुष्य धन्य जो अग्निको शिखाओं के समूहसे ग्रस्तशरीर होनेपर भी उत्तम समाधि से शरीर छोड़ते हैं ॥ ९९ ॥ जो तप और मरण निज तथा परको सुख करनेवाला है वही उत्तम है- प्रशंसनीय है, जो तप द्वैपायनके समान निज और परको दुःखका कारण है वह उत्तम नहीं ॥ १००॥
दूसरेका अपकार करनेवाला पापी मनुष्य, दूसरेका वध तो एक जन्ममें कर पाता है पर उसके फलस्वरूप अपना वध जन्म-जन्म में करता है ॥ १०१ ॥ यह प्राणी दूसरोंका वध कर सके अथवा न कर सके परन्तु कषायके वशीभूत हो अपना वध तो भव-भवमें करता है तथा अपने १, दिवः म । २. गमनाश्रिताम् क। ३. यातो म । ४. -र्यातस्य म । ५ तच्च म. ।
९६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org