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हरिवंशपुराणे
इत्यादि शुभचिन्तात्मा भविष्यत्तीर्थ कृद्धरिः । बद्धायुष्कतया भृत्वा तृतीयां पृथिवीमितः ॥ ६३॥
शादूलविक्रीडितम्
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दक्षो दक्षिणमारतार्धंविभुतामुद्भाव्य 'मव्यप्रजा
पूर्ण
बन्धुबन्धुजनाम्बुधे रहरहर्वृद्धिं विधाय प्रभुः । वर्षसहस्त्रमेकमगमत्संजीव्य कृष्णो गतिं
मोगी स्वाचरणोचितो जिनतथा' यो योक्ष्यते दर्शनात् ॥ ६४ ॥
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इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ हरिगत्यन्तरवर्णनो नाम द्वाषष्टितमः सर्गः ॥६२॥
हस्तावलम्बनरूप हो || ६२ || इत्यादि शुभ विचार जिनको आत्मामें उत्पन्न हो रहे थे, और जो भविष्यत् कालमें तीर्थंकर होनेवाले थे ऐसे श्रीकृष्ण पहलेसे ही बद्धायुष्क होनेके कारण मरकर तीसरी पृथिवीमें गये ||६३ || गौतम स्वामी कहते हैं कि जो आगे चलकर सम्यग्दर्शनके कारण तीर्थंकर पदसे युक्त होंगे वे नीतिनिपुण, भव्य प्रजाके परम बन्धु, भोगी कृष्ण, दक्षिण भरतार्धकी विभुताको प्रकट कर, प्रतिदिन बन्धुजनरूपी सागरकी वृद्धिको बढ़ाकर एवं एक हजार वर्षं तक जीवित रहकर अपने आचरणके अनुरूप तीसरी पृथिवीमें गये ||६४ ||
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इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणर्मे कृष्णके परलोकगमनका वर्णन करनेवाला बासठवाँ पर्व समाप्त हुआ ||६२ ॥
१. सेव्यप्रजां बन्धु क. । २, जनतया म. ।
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