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द्विषष्टितमः सर्गः
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सुखं वा यदि वा दुःख दत्ते कः कस्य संसृतौ । मित्रं वा यदि वामित्रः स्वकृतं कर्म तस्वतः ॥५॥ तोयार्थ मे गतो रामो यावत्रायाति सत्त्वरम् । प्रयाहि तावदक्षान्तिः कदाचित्स्यास्वयि प्रभो ॥५२॥ गच्छ स्वमादितो वातां पाण्डवेभ्यो निवेदय । हितास्तेऽस्मत्कुलस्याप्ताः करिष्यन्ति तव स्थितिम् ॥५३॥ उक्त्वेति कौस्तुभं तस्मै दत्वामिज्ञानमादरात् । परावृत्यान्तरं स्तोकं व्रजेति प्रतिपादितः ॥५४॥ उक्त्वासौ क्षम्यतां देव ममेति करकौस्तुभः । शनैरुद्धृत्य तं बाणं परावृत्तपदोऽगमत् ॥५५॥ तस्मिन्गते हरिस्तीवव्रणवेदनयादितः । उत्तराभिमुखो भूत्वा कृतपञ्चनमस्कृतिः ॥५६॥ कृत्वा नेमिजिनेन्द्राय वर्तमानाय साञ्जलिः । पुनः पुननमस्कारं गुणस्मरणपूर्वकम् ॥५७॥ जिनेन्द्रविहृतिध्वस्तैसमस्तोपद्रवा यतः । ततः कृतशिराः शौरिः क्षितिशय्यामधिश्रितः ॥५॥ वस्त्रसंवृतसर्वाङ्गः सर्वसङ्गनिवृत्तधीः । सर्वत्र मित्रमावस्थः शुभचिन्तामुपागतः ॥५९॥ पुत्रपौत्रकलत्राणि ते भ्रातृगुरुबान्धवाः । अनागत विधातारो धन्या ये तपसि स्थिताः ॥६॥ अन्तःपुरसहस्राणि सहस्राणि सुहृद्गणाः । 'अविधाय तपः कष्टं कई वह्निमुखे मृताः ॥६॥ कर्मगौरवदोषेण मयापि न कृतं तपः । सम्यक्त्वं मेऽस्तु संसारपातहस्तावलम्बनम् ॥१२॥
छोड़ो, समस्त जगत् अपने किये हुए कर्मको अवश्य भोगता है । ५०॥ संसारमें कौन किसके लिए सुख देता है ? अथवा कौन किसके लिए दुःख देता है ? और कौन किसका मित्र है अथवा कोन किसका शत्रु है ? यथार्थमें अपना किया हुआ कार्य ही सुख अथवा दुःख देता हैं* ॥५१॥ बड़े भाई राम मेरे लिए पानी लानेके लिए गये हैं सो जबतक वे नहीं आते हैं तबतक तुम शीघ्र ही यहाँसे चले जाओ। सम्भव है कि वे तुम्हारे ऊपर अशान्त हो जायें ॥५२॥ तुम जाओ और पहलेसे ही पाण्डवोंके लिए सब समाचार कह सुनाओ। वे अपने कुलके हितकारी आप्तजन हैं अतः तुम्हारी अवश्य रक्षा करेंगे ॥५३॥ इतना कहकर उन्होंने पहचानके लिए उसे आदरपूर्वक अपना कौस्तुभमणि दे दिया और कुछ थोड़ा मुड़कर कहा कि जाओ। हाथमें कौस्तुभमणि लेते हुए जरत्कुमारने कहा कि हे देव ! मुझे क्षमा कीजिए । इस प्रकार कहकर और धीरेसे वह बाण निकालकर वह उलटे पैरों वहांसे चला गया ॥५४-५५।।
जरत्कुमारके चले जानेपर कृष्ण व्रणको तीव्र वेदनासे व्याकुल हो गये। उन्होंने उत्तराभिमुख होकर पंच-परमेष्ठियोंको नमस्कार किया ॥५६॥ वर्तमान तीर्थंकर श्री नेमिजिनेन्द्रको हाथ जोड़कर गुणोंका स्मरण करते हुए बार-बार नमस्कार किया ॥५७॥ क्योंकि जिनेन्द्र भगवान्के विहारसे पृथिवीके समस्त उपद्रव नष्ट हो चुके हैं इसलिए शिर रखकर वे पृथ्वीरूपी शय्यापर लेट गये ॥५॥
तदनन्तर जिन्होंने वनसे अपना समस्त शरीर ढंक लिया था, सब परिग्रहसे जिनकी बुद्धि निवृत्त हो गयी थी और जो सबके साथ मित्रभावको प्राप्त थे ऐसे श्रीकृष्ण इस प्रकारके शुभ विचारको प्राप्त हुए ॥५९॥
वे पुत्र, पोते, स्त्रियाँ, भाई, गुरु और बान्धव धन्य हैं जो भविष्यत्का विचार कर अग्निके उपद्रवसे पहले ही तपश्चरण करने लगे ॥६०॥ बड़े कष्टकी बात है कि हजारों खियाँ और हजारों मित्रगण तपका कष्ट न कर अग्निके मुखमें मृत्युको प्राप्त हो गये ॥६१॥ कर्मके प्रबल भारसे मैंने भी तप नहीं किया इसलिए मेरा सम्यग्दर्शन ही मुझे संसारपातसे बचानेके लिए
१. प्रभो क.। २. वेदनमादितः म. । ३. विनतिर्वस्त-म. । ४. अभिधाय म., क., ख., ग., ध.। * को सुख को दुख देत है कर्म देत झकझोर ।
उरी सुरझै आप ही ध्वजा पवनके जोर ॥
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