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हरिवंशपुराणे त्वत्प्रवृत्तिमिव वेदितुं 'पुरः पूर्वमित्रपतिसुप्रयुक्तया । संध्ययाप्युषसि सानुरागया रज्यते शयनतो विरज्यताम् ॥४०॥ अभ्युदेति करभिन्नपङ्कजश्रीसमग्रमुदयाचलादयम् । द्राक् प्रधानपुरुषायतेऽधुना दातुमर्घमिव धर्मदीधितिः ॥४१॥ चाटुकारशतमत्र सीरिणा प्राणवल्लभतया कृतं हरौ। निष्फलं सकलमप्यभूत्पुरा गाढसुप्त इव मुग्धबालके ॥४२॥ तं प्रश्त्य भुजपञ्जरोदरे स्पर्शनेन्द्रियसुखं मजन् शिशोः । अन्मनीव वनमध्यमाट सच्छत्रधारगुरुकंसशङ्कया ॥४३॥ इत्यनेकदिनरात्रियापनैः सोऽत्यतन्द्रितमनोवचोवपुः। प्रत्यहं हरिवपुर्वहन् भ्रमन् प्रत्यपद्यत रतिं न कानने ॥४४॥ तीवधर्मसमयात्यये ततः प्रावृषा शमितघर्मसंपदा। गर्जदम्बुदघटाम्बुवर्षणैः प्रापितं जगदितस्तत: शिवम् ॥४५॥ वासुदेववचनाजरासुतः शावरं विषमवेषमुद्वहन् ।
दाक्षिणा मधुरलोकसंकुलां प्राप पाण्डवपुरीमखण्डितः ॥४६॥ था-जागता था, वही तू आज शृगालियोंके विरस शब्दोंसे प्रबोधको प्राप्त हो रहा है ।।३९।। हे भाई ! अब प्रातःकाल हुआ चाहता है। पूर्व सूर्यरूप पतिके द्वारा प्रेषित अनुरागवती सन्ध्या भी लाल हो रही है सो ऐसी जान पड़ती है मानो तुम्हारा समाचार जाननेके लिए ही सूर्यने उसे पहलेसे भेजा है अतः शय्यासे विरक्त होओ-उठ कर बैठो ॥४०॥ देखो, यह उदयाचलसे सूर्य उदित हो रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो इस समय तुझ प्रधान पुरुषके लिए अपनी किरणोंसे विकसित कमलोंकी लक्ष्मीसे युक्त अर्घ देनेके लिए ही शीघ्रतासे बढ़ा आ रहा है ।।४१॥
बलभद्रको कृष्ण प्राणोंसे अधिक प्यारे थे इसलिए उन्होंने उन्हें जगानेके लिए सैकड़ों प्रिय वचन कहे परन्तु जिस प्रकार पहलेसे प्रगाढ़ नींदमें सोये भोले-भाले बालकके विषयमें कहे प्रिय वचन निष्फल जाते हैं उसी प्रकार उनके वे प्रिय वचन निष्फल गये ||४२|| जिस प्रकार जन्मकालमें कंसके भय से बलभद्रने कृष्णको अपने भजरूप पंजरके मध्य में ले लिया था तथा वसुदेवने उनपर. छत्र लगा लिया था उसी प्रकार अब भी उन्होंने स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्धी सुखका अनुभव करते हुए उन्हीं भुजरूप पंजरके मध्यमें ले लिया और लेकर वे वनके मध्यमें इधर-उधर घूमने लगे ॥४३॥
इस प्रकार अनेक दिन-रात व्यतीत होनेपर भी उनके मन, वचन और शरीरमें जरा भी आलस्य नहीं आया--वे प्रतिदिन कृष्णके शवको धारण किये हुए वनमें घूमते रहें तथा रंच मात्र भी प्रीतिको प्राप्त नहीं हुए ॥४४॥
___ जब ग्रीष्म ऋतु चली गयी और आतपके वैभवको नष्ट करनेवाली वर्षा ऋतुने गरजते बादलोंकी घटा तथा जलवर्षासे जगत्में, जहां-तहाँ हर्ष प्राप्त करा दिया तब कृष्णके कहे अनुसार भीलके विषम वेषको धारण करता हुआ जरत्कुमार अखण्डित रूपसे सुन्दर लोगोंसे व्याप्त पाण्डवोंको पुरी दक्षिण मथुरामें पहुँचा ।। ४५-४६ ।।
१. परः न.। २. पूर्वमित्रसुपतिप्रयुक्तया क.। ३. सफल. म. । ४. पुरु ङ., पुर म., सच्छत्रधारो गुरुर्वसुदेवो यस्मिन्नटने ( क. टि.)। ५. मथुर म. । ६. प्राप्य म. ।
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