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त्रिषष्टितमः सर्गः
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सोऽवगाम हरिदतकार्यकृत् प्रश्रयेण विहितोचितस्थितिः । सन्निषण्णमुदपृच्छयतेशितुः क्षेममित्यथ युधिष्ठिरादिभिः ॥४७॥ मन्युरुद्धगलगद्गदस्वरः सन्निवेद्य स जरात्मजो जगौ । द्वारिकास्वजनदाहपूर्वक स्वप्रमादवशतो मृति हरेः ॥१८॥ प्रत्ययाय हरिदत्तकौस्तुभं प्रस्फुरकिरणजालकं पुरः । संप्रदश्य पुरुदुःखपूरितः पूस्कृति व्यतनुतातनुस्वनः ॥४९॥ तरक्षणेलमुदतिष्ठदाकुलः कुन्त्यधिष्ठितकलत्रकण्ठजः । पाण्डुपुत्रभवनेऽखिले रुदत्याकुलस्य जलधेरिव ध्वनिः ॥५०॥ हा प्रधानपुरुषैकधीर हा हा जगदव्यसननोदनोद्यत । हा त्वयीह विधिना किमोहितं हा वतेति रुदितं चिरं त्वभूत् ॥५१॥ संहृतातिबहुरोदनैस्ततः पाण्डवादिबहुबान्धवैर्जगद् । वृत्तवेदिभिरदायि विष्णवे संस्थितस्वजनतृप्तये जलम् ॥५२॥ जारसेयमपनीय पूर्वदुषमीषदधीरिताधिकम् ।
अग्रतस्तममिकृरय पाण्डवा जग्मुरातहलभृद्दिदृक्षया ॥५३॥ कृष्णके दूतका कार्य करनेवाले जरत्कुमारने पाण्डवोंकी सभामें प्रवेश कर विनयपूर्वक दूतकी सब मर्यादाओंका पालन किया। तदनन्तर जब वह सभामें बैठ गया तब युधिष्ठिर आदिने उससे स्वामीकी कुशल-वार्ता पूछो ॥४७॥ शोकसे जिसका कण्ठ रुंध गया था तथा स्वर गद्गद हो गया था ऐसे जरत्कुमारने द्वारिका तथा कुटुम्बीजनोंके जल जाने और अपने प्रमादसे कृष्णके मारे जानेका सब समाचार कह दिया और विश्वास दिलानेके लिए देदीप्यमान किरणोंसे युक्त, कृष्णका दिया कौस्तुभमणि उनके सामने दिखा दिया। तदनन्तर बहुत भारी दुःखसे भरा जरत्कुमार गला फाड-फाडकर जोरसे रोने लगा ॥४८-४९|| उसी समय माता कुन्ती तथा पाण्डवोंकी स्त्रियोंके कण्ठसे उत्पन्न रोनेका विशाल शब्द उठ खड़ा हुआ। यही नहीं, उस समय जो वहां विद्यमान थे वे सभी रोने लगे जिससे पाण्डवोंके भवन में समुद्र-जैसी ध्वनि गूंज उठी ।।५०|| वे सव रोते-रोते कह रहे थे कि 'हा प्रधानपुरुष ! हा अद्वितीय धीर ! हा जगत्का कष्ट दूर करने में सदा उद्यत रहनेवाले ! विधिने तुम्हारे ऊपर यह क्या हाय-हाय, बड़े दुःखकी बात है' इस प्रकार चिरकाल तक रुदन चलता रहा ॥५१॥
तदनन्तर जब रोना-चीखना बन्द हुआ तब जगत्का वृत्तान्त जाननेवाले पाण्डव आदि बान्धवोंने सब ओर घेरकर बैठे आत्मीयजनोंके सन्तोषके अर्थ कृष्णके लिए जल दिया* ॥५२॥ पहलेका निन्द्यवेष दूर कर जिसने मानसिक व्यथाको कुछ-कुछ कम कर दिया था ऐसे
१. स्थितः क.। २. जरात्मको म.। ३. ईषत् किंचित अवधी रितः आधिर्मनोव्यथा येन स तम् कपसमासान्तः । * मृतकके लिए जल देने की पद्धति जैन संस्कृतिमें नहीं है। फिर ग्रन्थकर्ताने इसका वर्णन क्यों किया ? यहाँ उनका यह भाव जान पड़ता है कि पाण्डव आदि स्वयं तो जल देने के पक्षमें नहीं थे किन्तु उस समय उनके दुःखमें समवेदना प्रदर्शित करनेके लिए जो अन्य जनसमूह आकर एकत्रित हो गया था उनकी तृप्तिके लिए पाण्डवोंने कृष्णको जल दिया था। उस समय वैदिक संस्कृतिके अनुसार लोकमें मृतकके लिए जल देने की पद्धति थी और पाण्डव लोककी सब विधियोंको जाननेवाले थे इसलिए लोकाचारसे उन्होंने यह कार्य किया था।
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