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त्रिषष्टितमः सर्गः
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सान्ध्यरागपटलेन सर्वतः पश्य संस्थगितमङ्ग विशुपम् । त्वय्यतिस्वपति रोदनोद्गतैरक्षिरागनिवहै रिहाङ्गिनाम् ॥३२॥ देवभक्त मज सांध्यवन्दनां वन्ध्यया किसयि देव ! निदया। संध्ययापि गलितं गलगुचा वेगवद्रविरथा बन्धया ॥३३॥ एकवर्णमखिलं जगत्खला कुर्वती समवसर्पति दुतम् । ध्वान्तसंततिरपेतदर्शना कालवृत्तिरति दुःपमा यथा ॥३४॥ श्वापदानि पदशब्दगन्धतो घ्राणकर्णवलवन्ति विन्दते । एहि दुर्गमिह संश्रयावहे क्षेमतो व्रजति तत्र नौ निशा ॥३५॥ चित्रिते कुसुमचित्रमण्डपे दत्तबन्धुनृपलोकदर्शनः । "श्रीपुषि स्वपिषि यो वधूजनैः सोपधानशयने महामृदौ ॥३६॥ स्वं महीध्रवनरन्ध्रवृत्तिभिमुद्धकाककुलजम्बुकादिभिः।। सोऽद्य भक्षकगणैरुपासितः श्रीपते स्वपिषि शार्करक्षिती ॥३७॥ कालिनीः प्रणयकेलिकोपिनीस्त्वं प्रसाद्य कुपितः प्रसादितः । यः पुरा नयति यामिनी रतैः सोऽद्य किं विगतचेतनात्मना ॥३८॥ चारुवारवनितासुगीतकैर्वन्दिवृन्दपटुपाठनिस्वनैः। यः प्रबोधमुषसि प्रपद्यसे सोऽद्य वीर ! विरसैः शिवास्तैः ॥३१॥
ही है क्योंकि कालको जाननेवाला पुरुष यथायोग्य कार्य करता ही है ॥३१॥ हे भाई ! देख, यह समस्त संसार सन्ध्याकी लालीसे सब ओरसे आच्छादित हो रहा है सो ऐसा जान पड़ता है मानो तुम्हारे दीर्घ निद्रामें निमग्न होनेपर संसारके सब मनुष्योंके रोदनजन्य नेत्रोंकी लालिमासे ही मानो लाल-लाल हो रहा है ॥३२॥ हे देवभक्त ! यह सन्ध्या भी फीकी पड़ बड़े वेगसे जाते हुए सूर्यके रथके पीछे-पीछे चली जा रही है। उठ सन्ध्या-वन्दन कर। हे देव ! व्यर्थको निद्रासे क्या कार्य सिद्ध होता है ? ॥३३।। जो अतिदुःषमा नामक छठे कालके समान समस्त जगत्को एक वर्ण (ब्राह्मणादि वर्णके भेदसे रहित ) एक वर्णरूप, पक्षमें एक श्यामवर्ण रूप कर रही है, अतिशय दुष्ट है, एवं अपेतदर्शना--सम्यग्दर्शनसे रहित (पक्षमें देखनेकी शक्तिसे रहित ) है ऐसी यह अन्धकारकी सन्तति बड़े वेगसे सब ओर फैल रही है ॥३४॥ देखो, ये घ्राणेन्द्रिय और कर्णेन्द्रियके बलसे युक्त जंगली जानवर अपने पैरोंको गन्ध और शब्दको ग्रहण कर इस ओर आ रहे हैं इसलिए आओ इस दुर्गमें चलें वहाँ अपनी रात्रि कुशलपूर्वक बीत जायेगी ॥३५॥ हे भाई ! जो तू फूलोंसे चित्र-विचित्र, आश्चर्यकारी मण्डपमें बन्धुजनों तथा राजाओंको दर्शन देता था और लक्ष्मीको पुष्ट करनेवाले, अत्यन्त कोमल एवं तकियोंसे सुशोभित शय्यापर स्त्रीजनोंके साथ शयन करता था हे लक्ष्मीपते ! वही तू आज पर्वत और वनको गुफाओंमें रहनेवाले गीध, कोवे तथा शृगाल आदि भक्षक जन्तुओंके समूहसे सेवित होता हुआ कंकरीली-पथरीली भूमिपर सो रहा है ॥३६-३७॥ जो तू पहले प्रणय-क्रीड़ासे कुपित स्त्रियोंको प्रसन्न करता था और तेरे कुपित हो जानेपर वे तुझे प्रसन्न करती थीं और इस तरह रति-क्रीड़ासे रात्रि व्यतीत करता था वही तू आज चेतनासे रहित हो रात्रि व्यतीत कर रहा है ॥३८॥ हे वीर! जो तू पहले प्रातःकालमें सुन्दर वारवनिताओंके सुसंगीतों एवं वन्दीजनोंके उच्च पाठोंके शब्दोंसे प्रबोधको प्राप्त होता
१. किमपि म. । २. रथानुबन्ध्यया म. । ३. प्राणकणबर्लवन्ति म. । ४. श्रीयुषि म., ख.। ५. स्वपिति म.। ६. भसितक्षितौ ङ. । तक्षितक्षितो म., ख. ।
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