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त्रिषष्टितमः सर्गः
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इत्युदीर्य कुपितो हली बली सिंहनादमकरोद्भयंकरम् । व्यापिनं विपिनदुर्गसंचरव्याघ्रसिंहकरिदर्पशातनम् ॥१६॥ संजगौ च शयितो ममानुजः छद्मना विधिविधानयोगतः । येन केनचिदहेतुवैरिणा संददातु लघु सोऽध दर्शनम् ॥१७॥ 'सुप्तमात्रमपशस्त्रमानतं मुक्तमानमसकृत्पलायिनम् । प्रत्यवाययुतमङ्गनां शिशं घ्नन्ति शत्रुमपि नो यशोधनाः ॥१८॥ उच्चकैरिति गदन् समन्ततः संप्रधाय कियदप्यवान्तरम् । सोऽन्यदीयपदवीमनाप्नुवनस्य कृष्णमुपगृह्य रोदिति ॥१९॥ हा जगरसुभग ! हा जगत्पते ! हा जनाश्रयण ! हा जनार्दन ! हापहाय गतवानसिक मां हानुजैहि लघु हेति चारुदत् ॥२०॥ हारि वारि परितापहारि तं पाययस्यपि विचेतनं मुहुः । क्राम्यतीपदपि तन्न तद्गले दूरमव्यमनसीव दर्शनम् ॥२१॥ मार्टि मार्दवगुणेन पाणिना संमुखं मुखमुदीक्षते मुदा । लेढि जिघ्रति विमूढधीर्वचः श्रोतुमिच्छति धिगात्ममूढताम् ॥२२॥ धौरिवोरुविमवाग्निमस्मिता द्वारिकेति किमिवासि तप्तवान् । अक्षयैर्बहुविधाकश्चिता प्रागिवास्ति ननु मारतावनिः ॥२३॥
कोन पुरुष आज यहां शिकारके फलको प्राप्त हुआ है ? ॥१५॥ इस प्रकार कहकर बलवान् बलदेवने कुपित हो ऐसा भयंकर सिंहनाद किया जो समस्त वनमें व्याप्त हो गया तथा जिसने वनके दुर्गम स्थानोंमें चलनेवाले व्याघ्र, सिंह और हाथियोंका गर्व नष्ट कर दिया ।।१६।। उन्होंने कहा कि भाग्यके फेरसे सोते हुए मेरे छोटे भाईको जिस किसी अकारण वैरीने छलसे मारा है वह आज शीघ्र ही मुझे दर्शन दे-मेरे सामने आवे ॥१७|| यशरूपी धनको धारण करनेवाल शूरवीर ऐसे शत्रुको भी नहीं मारते जो सो रहा हो, शस्त्ररहित हो, नम्रीभूत हो, मानरहित हो, बार-बार पीठ दिखाकर भाग रहा हो, अनेक विघ्नोंसे युक्त हो, स्त्री हो अथवा बालक हो ॥१८॥ इस प्रकार जोर-जोरसे कहते हुए वे इधर-उधर कुछ दूर तक आकर दौड़े भी परन्तु जब उन्हें किसी दूसरेका मार्ग नहीं मिला तब वे कृष्णके पास वापस आकर तथा उन्हें गोदमें लेकर रोने लगे ॥१९॥
हाय जगत्के प्रिय ! हा जगत्के स्वामी! हा समस्त जनोंको आश्रय देनेवाले! हा जनादन ! तू मुझे छोड़ कहां चला गया ? हा भाई ! तू जल्दी आ, जल्दी आ-इस प्रकार कहते हुए वे चिरकाल तक रोते रहे ॥२०॥ वे चेतनाशून्य-निर्जीव कृष्णको सुन्दर एवं सन्तापको दूर करनेवाला पानी बार-बार पिलाते थे परन्तु जिस प्रकार दूरानुदूर भव्यके हृदयमें सम्यग्दर्शन नहीं प्रवेश करता है उसी प्रकार उनके गलेमें वह जल थोड़ा भी प्रवेश नहीं करता था ।।२१।। मढबद्धि बलदेव सामने बैठकर कोमल हाथोंसे उनका मख धोते थे. हर्षपूर्वक उसे देखते थे, चमते थे, सूंघते थे, और वचन सुनने की इच्छा करते थे। आचार्य कहते हैं कि ऐसी आत्म-मूढ़ताको धिक्कार है ।।२२।। 'स्वर्गके समान विशाल वैभवसे युक्त द्वारिकापुरी अग्निसे भस्म हो गयी है इसलिए अब जोनेकी क्या आवश्यकता है' ? यह सोचकर क्या तू तप्त हो रहा है ? अरे नहीं भाई ! नाना प्रकारको अविनाशी खानोंसे युक्त भरत क्षेत्रको भूमि पहलेके समान अब भी मौजूद
१. सुप्तमत्त क.। Jain Education International
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