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एकषष्टितमः सर्गः
क्षम्यतां क्षम्यतां मूढः प्रमादबहुलैः कृतम् । दुर्विचेष्टितमस्मभ्यं प्रसादः क्रियतां यते ॥ ६४ ॥ इत्यादिप्रियवादिभ्यां प्रार्थ्यमानोऽनिवर्तकः । सप्राणिद्वारिकादाहे पापधीः कृतनिश्चयः ॥ ६५॥ संज्ञयाऽदर्शयत्ताभ्यामङ्गुलीद्वयदर्शनम् । युवयोरेव मोक्षोऽत्र नान्यस्येति परिस्फुटम् ॥६६॥ "अनिवर्तरोषं तं विदित्वा विदितक्षयौ । विषण्णौ तौ पुरीं यातौ किंकर्तव्यत्वविह्नौ ॥६७॥ तदनेके यादवाश्वरमाङ्गकाः । पुर्या निष्क्रम्य निष्क्रान्तास्तस्थुर्गिरिगुहादिषु ॥ ६८ ॥ मृत्वा क्रोधाग्निनिर्दग्धतपःसारघनश्च सः । बभूवाग्निकुमाराख्यो मिथ्यादृग्भवनामरः ॥ ६९॥ अन्तर्मुहूर्तकालेन पर्याप्तः प्रतिबुद्धवान् । विभङ्गेन विकारं स्वं कृतं यदुकुमारकैः ॥७०॥ रौद्रध्यानं स दध्यौ मे तपस्थस्य निरागसः । हिंसकानां पुरीं सर्वां दहामि सह जन्तुभिः ॥७१॥ इति ध्यात्वा दुर्गा यावदायाति दारुणः । द्वारावत्यां महोत्पातास्तावज्जाताः भयावहाः ॥७२॥ बभूवुः प्रत्यगारं च रोमहर्षविकारिणः । प्रजानां निशि सुप्तानां स्वप्नाश्च मयशंसिनः ॥ ७३ ॥ प्राप्य पापमतिश्चासौ पुरीमारभ्य बाह्यतः । कोपी दग्धुं समारेभे तिर्यग्मानुषपूरिताम् ॥७४ || धूमज्वालाकुलान् वृद्धस्त्रीबालपशुपक्षिणः । नश्यतोऽग्नौ क्षिपत्येष कारुण्यं पापिनः कुतः || ७५|| प्राणिजातस्य सर्वस्य जातवेदसि मज्जतः । आक्रन्दनस्वना जाता येऽत्र जाता न जातुचित् ॥ ७६ ॥
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हे मुनिराज ! प्रमादसे भरे हुए मूर्ख कुमारोंने जो दुष्ट चेष्टा को है उसे क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए, हम लोगों के लिए प्रसन्न होइए' ||६४ || इत्यादि प्रियवचन बोलनेवाले बलदेव और कृष्णने द्वैपायनसे बहुत प्रार्थना की पर वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे । उनकी बुद्धि अत्यन्त पापपूर्णं हो गयी थी और वे प्राणियों सहित द्वारिकापुरीके जलानेका निश्चय कर चुके थे ||६५ || उन्होंने बलदेव और कृष्ण के लिए दो अंगुलियां दिखायीं तथा इशारेसे स्पष्ट सूचित किया कि तुम दोनोंका ही छुटकारा हो सकता है, अन्यका नहीं ||६६||
जब बलदेव और कृष्णको यह विदित हो गया कि इनका क्रोध पीछे हटनेवाला नहीं है तब वे द्वारिकाका क्षय जान बहुत दुःखी हुए और किंकर्तव्यविमूढ़ हो नगरीकी ओर लौट आये ||६७|| उस समय शम्बकुमार आदि अनेक चरमशरीरी यादव, नगरी से निकलकर दीक्षित हो गये तथा पर्वतकी गुफा आदिमें विराजमान हो गये ||६८ || क्रोधरूपी अग्निके द्वारा जिनका तपरूपी श्रेष्ठ धन भस्म हो चुका था ऐसे द्वैपायन मुनि मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव हुए ||६९ || वहां अन्तर्मुहूर्त में ही पर्याप्तक होकर उन्होंने यादव कुमारोंके द्वारा किये हुए अपने अपकारको विभंगावधिज्ञानके द्वारा जान लिया ॥७०॥ उन्होंने इस रौद्रध्यानका चिन्तवन किया कि, 'देखो, मैं निरपराधी तपमें लीन था फिर भी इन लोगोंने मेरी हिंसा की अतः मैं इन हिंसकोंकी समस्त नगरीको सब जीवोंके साथ अभी हाल भस्म करता हूँ।' इस प्रकार ध्यान कर क्रूर परिणामोंका धारक वह दुर्वार देव ज्यों ही आता है त्यों ही द्वारिकामें क्षयको उत्पन्न करनेवाले बड़े-बड़े उत्पात होने लगे ||७१-७२ ।। घर-घरमें जब प्रजाके लोग रात्रिके समय निश्चिन्ततासे सो रहे थे तब उन्हें रोमांच खड़े कर देनेवाले भयसूचक स्वप्न आने लगे || ७३ || अन्तमें उस पापबुद्धि क्रोधी देवने जाकर बाहरसे लेकर तियंच और मनुष्योंसे भरी हुई नगरीको जलाना शुरू कर दिया ||७४ || वह धूम और अग्निकी ज्वालाओंसे आकुल हो नष्ट होते हुए वृद्ध, स्त्री, बालक, पशु तथा पक्षियोंको पकड़-पकड़कर अग्निमें फेंकने लगा सो ठीक ही है क्योंकि पापी मनुष्यको दया कहाँ होती है ? ॥७५॥ उस समय अग्नि में जलते हुए समस्त प्राणियोंकी चिल्लाहट से जो शब्द हुए थे वैसे शब्द इस पृथिवीपर कभी नहीं हुए थे ||७६ || दिव्य
१. अतिवर्तक - म । २. घनश्च यः म । ३. सुदुर्वारो म । ४. ज्वालाकरान् म. । ५. अग्नो ।
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