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हरिवंशपुराणे
चतरङ्गं तत: सैन्यं सनायकमितस्ततः । हन्यमानं ननाशाभ्यां विह्वलीभूतमानसम् ।।१२।। समादायान्नपानं तो निर्गत्य नगरानतः । वनं विजयमागत्य सरो रम्यमपश्यताम् ।।१३।। स्नास्वा सरसि तौ तत्र जिनं नवा मनःस्थितम् । चित्रमभ्यवहृत्यानं पयः पीत्वातिशीतलम् ॥१४॥ विश्रम्य च क्षणं वीरौ प्रयान्तौ दक्षिणां दिशम् । कौशाम्ब्याख्यं वनं भीमं प्रविष्टौ परदुर्गमम् ॥१५|| खगरावखरारावमुखरीकृतदिग्मुखम् । तृष्णार्तमृगयूथानां गम्यं प्रोन्मृगतृष्णकम् ॥१६॥ ग्रीष्मोग्रतापपरुषवहन्मारुतदुस्सहम् । दावदग्धलताजालगुल्मपादपखण्डकम् ।।१७।। असंभाव्याम्भसि भ्राम्यत्श्वापदश्वासशब्दके । वने वनेचरोद्भिन्नकुम्भिकुम्भास्तमौक्तिके ॥१८॥ आरोहति वियन्मध्यं सुतीने तीवेरोचिषि । जगी जनार्दनो ज्येष्ठं गुणज्येष्ठमिति श्रमी ॥१९॥ पिपासाकुलितोऽत्यर्थमार्य शुष्कौष्ठतालुकः । शक्नोमि पदमप्येकं न च यातुमतः परम् ।।२०।। तत्पायय पयः शीतमार्य तृष्णापहारि माम् । सदर्शनमिवानादौ संसारे सारवर्जिते ॥२१॥ इत्युक्त स्नेहसंचारसमाीकृतमानसः । स जगाद बलः कृष्णमुष्णनिश्वासमोचिनम् ॥२२॥ तात शीतलमानीय पानीयं पाययाम्यहम् । त्वं जिनस्मरणाम्मोभिस्तावत्तष्णां विमर्दय ॥२॥ निरस्यति पयस्तृष्णां स्तोका वेलामिदं पुनः । जिनस्मरणपानीयं पीतं तां मूलतोऽस्यति ॥२४॥
तदनन्तर इन दोनोंके द्वारा मार पडनेपर वह चतुरंग सेना अपने सेनापतिके साथ विह्वलचित्त हो इधर-उधर भाग गयी।।१२।।
तदनन्तर अन्न-पान लेकर दोनों भाई नगरसे निकल विजय नामक वनमें आये। वहाँ उन्होंने एक सुन्दर सरोवर देखा ॥१३॥ सरोवरमें स्नान कर हृदयमें स्थित जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर नाना प्रकारका भोजन किया, अत्यन्त शीतल पानो पिया और क्षण-भर विश्राम किया। विश्रामके बाद दोनों वीर फिर दक्षिण दिशाकी ओर चले और चलते-चलते दूसरोंके लिए अत्यन्त दुर्गम कौशाम्बी नामके भयंकर वनमें प्रविष्ट हुए ॥१४-१५॥ उस वनकी समस्त दिशाएँ पक्षियों तथा शृगालोंके शब्दोंसे शब्दायमान थीं, प्याससे पीड़ित मृगोंके झुण्ड वहां इधर-उधर फिर रहे थे, बड़ी ऊंचो मृगतृष्णा वहां उठ रही थी, ग्रीष्मके उग्न सन्तापसे कठोर बहती हुई वायुसे वह वन अत्यन्त असह्य था, तथा दावानलसे वहाँको लताओंके समूह, झाड़ियां और वृक्षोंके समूह जल गये थे ॥१६-१७॥
जहां पानीके मिलनेकी कोई सम्भावना नहीं थी, जहाँ दौड़ते हुए जंगली जानवरोंकी श्वासका शब्द हो रहा था, तथा जहां वनेचरोंके द्वारा विदीर्ण किये हुए हाथियोंके गण्डस्थलोंसे बिखरकर मोती इधर-उधर पड़े थे, ऐसे वनमें पहुँचकर जब अत्यन्त तीक्ष्ण सूर्य आकाशके मध्यमें आरूढ़ हो रहा था तब थके हुए कृष्णने गुणोंसे श्रेष्ठ बड़े भाईबलदेवसे कहा कि 'हे आर्य ! मैं प्याससे बहुत व्याकुल हूँ, मेरे ओठ और तालु सूख गये हैं, अब इसके आगे मैं एक डग भी चलनेके लिए समर्थ नहीं हूँ॥१८-२०॥ इसलिए हे आर्य ! अनादि एवं सारहीन संसारमें सम्यग्दर्शनके समान तृष्णाको दूर करनेवाला शीतल जल मुझे पिलाइए '॥२१॥
इस प्रकार कहनेपर स्नेहके संचारसे जिनका मन आर्द्र हो रहा था ऐसे बलदेवने गरम-गरम श्वास छोड़नेवाले कृष्णसे कहा कि 'हे भाई! मैं शीतल पानी लाकर अभी तुम्हें पिलाता हूँ तुम तबतक जिनेन्द्र भगवान्के स्मरणरूपी जलसे प्यासको दूर करो ।। २२-२३ ।। यह पानी तो थोड़े समय तकके लिए ही प्यासको दूर करता है पर जिनेन्द्र भगवान्का स्मरणरूपी
१. प्रयातो म. । २. सूयें। ३. मानसं म.। ४. कृष्णं दोघनिःश्वास ग.। ५. ततः म.।
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