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हरिवंशपुराणे वारुणी सा पुराणापि परिपाकवशाद्वशान् । तरुणानकरोद्गाढं तरुणीवारुणेक्षणान् ॥५१॥ असंबद्धानि गायन्तो नृत्यन्तः स्खलितक्रमाः। मुक्तकेशाः कृतोत्तंसाः कण्ठालम्बिवनम्रजः ॥५२॥ आगच्छन्तः मुरः सर्वे दृष्ट्वार्कामिमुखं मुनिम् । प्रत्यभिज्ञाय चावोचन् घूर्णमाननिरीक्षणाः ॥५३॥ सोऽयं द्वैपायनो योगी द्वारवत्याः किलान्तकृत् । मवितास्माकमद्याने व प्रयाति वराककः ॥५४॥ इत्युक्त्वा तं कुमारास्ते लोष्टुमिः सर्वतोऽश्मभिः । प्रजघ्नुनिघृणास्तावद्यावत्पतति भूतले ॥५५॥ क्रोधाधिक्यात्ततो दधे दुष्टोष्ठो भृकुटीकुटीम् । प्रलयाय यदना सः प्रायः स्वतपसोऽपि च ॥५६॥ प्रविष्टास्तु पुरी व्याला व्याला इव चलाचलाः । कुमाराः कश्चिदुक्तं तु दुर्वृत्तं लघु विष्णवे ॥५७॥ बलनारायणौ श्रुत्वा द्वैपायनमुपश्रुतम् । द्वारिकायाः क्षयं प्राप्तं मनाते जिनभाषितम् ॥५८॥ सभ्रमण परिप्राप्तो परित्यक्तपरिच्छदी। मुनि क्षमयितुं क्रोधाज्वलन्तमिव पावकम् ॥५९॥ दृष्टः संक्लिष्टधीस्ताभ्यां भ्रूभङ्गविषमाननः । दुनिरीक्ष्येक्षणः क्षीणः कण्ठप्राणो विभीषणः ॥६०॥ कृताञ्जलिपुटाभ्यां स प्रणिपत्य महादरात् । याच्यते याचना बन्ध्यं जानद्यामपि मोहतः ॥६॥ रक्ष्यतां रक्ष्यता साधो चिरं सुपरिरक्षितः । क्षमामूलस्तपोभारो धक्ष्यते क्रोधवह्निना ॥६२॥ मोक्षसाधनमप्येष तपो दूषयति क्षणात् । चतुर्वर्गरिपुः क्रोधः क्रोधः स्वपरनाशकः ॥६३॥
हो गये ॥५०॥ यद्यपि वह मदिरा पुरानी थी तथापि परिपाकके वशसे उसने तरुण स्त्रीके समान, लाल-लाल नेत्रोंको धारण करनेवाले उन तरुण कुमारोंको अत्यधिक वशीभूत कर लिया ।।५१।। फलस्वरूप वे सब कुमार असम्बद्ध गाने लगे, लड़खड़ाते पैरोंसे नाचने लगे, उनके केश बिखर गये, आभूषण अस्त-व्यस्त हो गये और उन्होंने अपने कण्ठोंमें जंगली फूलोंकी मालाएं पहन लीं ॥५२।। जब वे सब नगरकी ओर आ रहे थे तब उन्होंने सूर्यके सम्मुख खड़े हुए द्वैपायन मुनिको पहचान लिया। पहचानते ही उनके नेत्र घूमने लगे। उन्होंने आपसमें कहा कि यह वही द्वैपायन योगी है.जो द्वारिकाका नाश करनेवाला होगा। आज यह बेचारा हम लोगोंके आगे कहां जायेगा ? ॥५३-५४।। इतना कहकर उन निर्दय कुमारोंने लुड्डों और पत्थरोंसे उन्हें तबतक मारा जबतक कि वे घायल होकर पृथिवीपर नहीं गिर पड़े ।।५५।। तदनन्तर क्रोधकी अधिकतासे मुनि अपना ओठ डंसने लगे तथा यादवों और अपने तपको नष्ट करनेके लिए उन्होंने भ्रुकुटी चढ़ा ली ॥५६॥ मदमाते हाथियोंके समान अत्यन्त चञ्चल कुमार जब द्वारिकापुरीमें प्रविष्ट हुए तब उनमें से किन्हींने यह दुर्घटना शीघ्र ही कृष्णके लिए जा सुनायी ॥५७।। बलदेव तथा नारायणने द्वैपायनसे सम्बन्ध रखनेवाली इस घटनाको सुनकर समझ लिया कि जिनेन्द्र भगवान्ने जो द्वारिकाका क्षय बतलाया था वह आ पहुंचा है-अब शीघ्र ही द्वारिकाका क्षय होनेवाला है ॥५८|| बलदेव और नारायण घबड़ाहटवश सब प्रकारका परिकर छोड़, क्रोधसे अग्निके समान जलते हुए मुनिको शान्त करनेके लिए, उनसे क्षमा मांगनेके लिए उनके पास दौड़े गये ॥५९।। जिनकी बुद्धि अत्यन्त संक्लेशमय थी, भ्रकूटीके भंगसे जिनका मुख विषम हो रहा था, जिनके नेत्र दुःखसे
ग्य थे. जिनके प्राण कण्ठगत हो रहे थे और जो अत्यन्त भयंकर थे ऐसे द्वैपायन मुनिको बलदेव और कृष्णने देखा। उन्होंने हाथ जोड़कर बड़े आदरसे मुनिको प्रणाम किया और 'हमारी याचना व्यर्थ होगी' यह जानते हुए भी मोहवश याचना की ॥६०-६१।। उन्होंने कहा कि, 'हे साधो ! आपने चिरकालसे जिसको अत्यधिक रक्षा को है तथा क्षमा ही जिसकी जड़ है ऐसा यह तपका भार क्रोधरूपी अग्निसे जल रहा है सो इसकी रक्षा की जाये, रक्षा की जाये ॥६२॥ यह क्रोध मोक्षके साधनभूत तपको क्षण-भरमें दूषित कर देता है, यह धर्म, अर्थ काम और मोक्ष इन चारों वर्गोंका शत्रु है तथा निज और परको नष्ट करनेवाला है ॥६३॥
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