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एकषष्टितमः सर्गः
आकृतं श्रेणिकस्याथ ज्ञात्वा गणभृदग्रणीः । वृत्तं गजकुमारस्य जगादेति जगन्नतम् ॥१॥ श्रुत्वा गजकुमारोऽसौ जिनादिचरितं तथा । विमोच्य सकलान् बन्धून् पितृपुत्रपुरस्सरान् ॥२॥ संसारभीरुरासाद्य जिनेन्द्र 'प्रश्रयान्वितम् । गृहीत्वानुमतो दीक्षां तपः कर्तुं समुद्यतः ॥३॥ निरूपितास्त याः कन्याः कुमाराय गजाय ताः । प्रभावत्यादयः सर्वा निर्वेदिन्यः प्रववजुः ।।४।। कुमारश्रमणस्याथ गजस्यैकान्तवर्तिनः । निशीथे प्रतिमास्थस्य सर्वद्वन्द्वसहस्य सः ।।५।। सोमशर्मा सुतात्यागक्रोधाग्निकणदीपितः । अदीदिपदुदाराग्निं शिरसि स्थिरचेतसः ।।३।। दह्यमानशरीरोऽसौ शुक्लध्यानेन कर्मणाम् । अन्तं कृत्वा ययौ मोक्षमन्तकृत्केवली मुनिः ॥७॥ तस्य देहमहं चक्रुः समुपेत्य सुरासुराः । यक्षकिन्नरगन्धर्वमहोरगपुरोगमाः ॥८॥ ज्ञात्वा तन्मरणं दुःखाद् यादवा बहवस्तथा । दशाहांश्च विहायान्त्यं दीक्षिता मोक्षकाइक्षिणः ॥९॥ देव्यः शिवादयो बढ्यो देवकी रोहिणी विना । वसुदेव स्त्रियो विष्णोः कन्याश्चापि प्रवबजुः ॥१०॥ ततः सुरनराभ्यो नानाजनपदान् जिनः । विजहार महाभूत्या मध्यराजी प्रबोधयन् ॥११॥ उदीच्यान्नृपशालान् मध्यदेशनिवासिनः । प्राच्यानपि प्रजायुक्तान् स धर्मे स्थापयन् बहून् ।।१२।।
अथानन्तर श्रेणिकका अभिप्राय जानकर गणधरोंके अधिपति श्री गौतम स्वामीने जगतके द्वारा स्तुत गजकुमारका वृत्तान्त इस प्रकार कहना शुरू किया ॥ १ ॥ वे कहने लगे कि इस प्रकार गजकुमार, तीर्थंकर आदिका चरित्र सुनकर संसारसे भयभीत हो गया और पिता, पुत्र, आदि समस्त बन्धुजनोंको छोड़कर बड़ी विनयसे जिनेन्द्र भगवानके समीप पहुँचा और उनसे अनुमति ले दीक्षा ग्रहण कर तप करनेके लिए उद्यत हो गया ॥ २-३ ॥ गजकुमारके लिए जो प्रभावती आदि कन्याएं निश्चित की गयी थीं उन सभीने संसारसे विरक्त हो दीक्षा धारण कर ली ।। ४ ।।
तदनन्तर किसी दिन गजकुमार मुनि रात्रिके समय एकान्तमें प्रतिमायोगसे विराजमान हो सब प्रकारको बाधाएं सहन कर रहे थे कि सोमशर्मा अपनी पुत्रीके त्यागसे उत्पन्न क्रोधरूपी अग्निके कणोंसे प्रदीप्त हो उनके पास आया और स्थिर चित्तके धारक उन मुनिराजके शिरपर तीव्र अग्नि प्रज्वलित करने लगा ॥५-६॥ उस अग्निसे उनका शरीर जलने लगा। उसी अवस्थामें वे शक्लध्यानके द्वारा कर्मोका क्षय कर अन्तकृत्केवली हो मोक्ष चले गये ॥ ७॥ यक्ष, किन्नर, गन्धर्व और महोरग आदि सुर और असुरोंने आकर उनके शरीरकी पूजा की ।। ८ ॥ गजकुमार मुनिका मरण जानकर दुःखी होते हुए बहुत-से यादव तथा वसुदेवको छोड़कर शेष समुद्रविजय आदि दशाह मोक्षकी इच्छासे दीक्षित हो गये ॥ ९॥ शिवा आदि देवियों, देवकी और रोहिणोको छोड़कर वसुदेवकी अन्य स्त्रियों तथा कृष्णकी पुत्रियोंने भी दीक्षा धारण कर ली ॥१०॥
तदनन्तर देव और मनुष्योंसे पूजित भगवान् नेमिजिनेन्द्रने, भव्य जीवोंके समूहको प्रकोधित करते हुए, नाना देशों में बड़े वैभवके साथ विहार किया ॥ ११॥ उन्होंने उत्तर दिशाके, मध्यदेशके तथा पूर्व दिशाके प्रजासे युक्त अनेक बड़े-बड़े राजाओंको धर्ममें स्थिर करते हुए विहार
१. प्रश्रयान्वितं यथा स्यात्तथा । २. दीप्तितः म. । ३. शरीरपूजाम् । ४. दुःखा म. । ५. सुरवराभ्यर्यो म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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