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षष्टितमः सर्गः
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मीमश्चाथ महाभीमो रुद्रनामा तृतीयकः । महारुद्रोऽथ कालश्च महाकालश्व तुर्मुखः ॥५४८॥ नरवक्त्रोन्मुखाख्यौ द्वौ नबैते नारदाः स्मृताः । वासुदेवसमानायुःस्थितिस्तेषां प्रजायते ॥५४९॥ कलहे प्रीतिसंयुक्ताः कदाचिद्धर्मवत्सलाः । सिंहानन्दवशास्त्वेते महाभन्या जिनानुगाः ॥५५०॥ वर्षाणां षटशतीं त्यक्त्वा पञ्चाग्रं मासपञ्चकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽमवत् ॥५५१॥ मुक्तिंगते महावीरे प्रतिवर्षसहस्रकम् । एकको जायते कल्की जिनधर्मविरोधकः ॥५५२॥ इहास्यामवसर्पिण्या यथा तीर्थकरादयः । उत्सर्पिण्यां मविष्यन्त्यां भविष्यन्ति तथा परे ॥५५३॥ मविष्यदुःषमाशेषे सहस्रपरिमाणके । चतुर्दश भविष्यन्ति प्रागिमे कुलकारिणः ॥५५॥ कनकनकसंकाशः कनकः कनकप्रमः । त्रयः कनकपूर्वाः स्युस्ते राजध्वजपुङ्गवाः ॥५५५॥ नलिनीदलसंकाशो नलिनो नलिनप्रभः । नलिनोपपदास्त्वन्ये ते राजध्वजपुङ्गवाः ॥५५६॥ ततः पद्मप्रभो ज्ञेयः पद्मराजस्ततः परः । पद्मध्वजश्व बोद्धव्यः पनपुङ्गव एव च ॥५५७॥ तीर्थकृच्च महापद्मः सुरदेवो जिनाधिपः । सुपार्श्वनामधेयोऽन्यो यथार्थश्च स्वयंप्रमः ॥५५८॥ सर्वात्मभूत इत्यन्यो देवदेवः प्रभोदयः । उदतः प्रश्नकीर्तिश्च जयकीर्तिश्च सुव्रतः ॥५५९॥ अरश्च पुण्यमूर्तिश्च निष्कषायो जिनेश्वरः । विपुलो निर्मलामिख्यश्चित्रगुप्तो परः स्मृतः ॥५६॥
भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल. चतमंख. नरवक्त्र और उन्मख.ये नौ नारद माने गये हैं। उनकी आयु नारायणोंकी आयुके बराबर होती है तथा वे नारायणोंके समय ही होते हैं। वे कलहमें प्रीतिसे युक्त होते हैं, कदाचित् धर्मसे भी स्नेह रखते हैं, हिंसामें आनन्द मानते हैं तथा महाभव्य और जिनेन्द्र भगवान्के अनुगामी होते हैं ।।५४८-५५०॥
भगवान् महावीरके मोक्ष जानेके पश्चात् छह सौ पांच वर्ष पांच मास बीत जानेपर राजा शकर होगा और हजार-हजार वर्ष बाद एक-एक कल्की राजा होता रहेगा जो जैनधर्मका विरोधी होगा ।।५५१-५५२॥ जिस प्रकार इस अवसर्पिणीमें तीर्थंकर आदि हुए हैं उसी प्रकार आगे आनेवाली उत्सर्पिणीमें भी दूसरे-दूसरे तीर्थंकर आदि होंगे ॥५५३॥ जब आनेवाले दुःषमा नामक कालमें एक हजार शेष रह जावेंगे तब पहले क्रमसे ये चौदह कुलकर होंगे-१ देदीप्यमान स्वर्णके समान कान्तिवाला कनक, २ कनकप्रभ, ३ कनकराज, ४ कनकध्वज, ५ कनकपुंगव, ६ कमलिनीके पत्तेके समान वर्णवाला नलिन, ७ नलिनप्रभ, ८ नलिनराज, ९ नलिनध्वज, १० नलिनपुंगव, ११ पद्मप्रभ, १२ पद्मराज, १३ पद्मध्वज और १४ पद्मपुंगव ।।५५४-५५७||
कुलकरोंके बाद क्रमसे निम्नलिखित चौबीस तीर्थंकर होंगे-१ महापद्म, २ सुरदेव, ३ सपावं. ४ स्वयम्प्रभ, ५ सर्वात्मभूत, ६ देवदेव, ७ प्रभोदय, ८ उदंक, ९ प्रश्नकोति, १ कीर्ति, ११ सुव्रत, १२ अर, १३ पुण्यमूर्ति, १४ निष्कषाय, १५ विपुल, १६ निर्मल, १७ चित्रगुप्त,
शकराजाकी उत्पत्तिके विषयमें ति. प. में इस मतके सिवाय निम्नलिखित ३ मतोंका उल्लेख और किया गया है-(१) वीर जिनेन्द्रकी मुक्ति होनेके बाद चार सौ इकसठ वर्ष प्रमाणकाल बीत जानेपर शक राजा उत्पन्न हुआ। (२) नौ हजार सात सौ पचासी वर्ष और पांच मास बीत जानेपर (३) चौदह हजार सात सो तिरानबे वर्ष बीत जानेपर । गाथा निम्न प्रकार है-वीरजिणे सिद्धिगदे चऊसद इगि सट्रिवास परिमाणे। कालम्मि अदिक्कते उप्पण्णो एत्थ शकराओ ॥१४९६॥ अहवा तीरे सिद्ध सहस्सणवकम्मि सगसयब्भहिये। पणसीदिम्मि यतीदे षणमासे सकणिओ जादो ॥१४९७॥ चोदस सहस्स सगसय तेणउदी वासकाल विच्छेदे । वीरेसरसिद्धीदो उप्पणो सगणिओ अहवा ॥१४९८।। णिवाणे वीरजिणे छब्बास सदेसु पंचवरिसेसुं । षणमासेसु गरेसुं संजादो सगणिओ अहवा ॥१४९९।। ति. प. च. अ.।
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