________________
७०२
हरिवंशपुराणे नमः स्वच्छतरं स्पष्टतारातरलभासुरम् । सर: शरत्प्रसन्नाम्मः कुमुदिव दृश्यते ।।८।। दूराच्चाल्पधियः सर्वे नमन्ति किमुतेतरे । चतुरास्यश्चतुर्दिक्षु छायादिरहितो विभुः ॥१०॥ भुक्त्यमावो जिनेन्द्रस्योपसर्गस्य तथैव च । अहो लोकैकनाथस्य माहात्म्यं महदद्भुतम् ॥११॥ शुभंयवो नमन्त्येत्याहंयवोऽपि प्रवादिनः । अवसानाद्भुतं चैतन्निर्द्वन्द्वं प्राभवं हि तत् ॥१२॥ यस्यां यस्यां दिशीशः स्यास्त्रिदशेशपुरस्सरः। तस्यां तस्यां दिशीशाः स्युः प्रत्युद्याताः सपूजनाः ॥१३॥ यतो यतेश्च यातीशस्तदीशाश्च समङ्गलाः । अनुयान्त्याश्च सोमानः सार्वभौमो हि तादृशः ।।९।। त्रिमार्गगा प्रयास्येवं देवसेना स्वमार्गगा । पवित्रयति भूलोकं पवित्रेण प्रभाविता ॥९५।। तस्यामेकः समुत्तङ्गो मादण्डो दण्डसंनिमः । अधरोपरिलोकान्तः प्राप्तः प्रत्यागतांशुभिः ॥९६।। त्रिगुणीकृततेजस्कः स्थूलदृश्यः स्वतेजसा । भासते भास्करादन्याज्ज्योतिष्टोमतिरस्करः ॥९॥ आलोको यस्य लोकान्तव्यापी निःप्रतिबन्धनः । धवस्तान्धतमसो भास्वत्प्रकाशमतिवर्तते ।।९८॥ तस्यान्तस्तेजसो मर्ता तेजोमय इवापरः । रश्मिमालिसहस्रकरूपाकृतिरनाकृतिः ॥१९॥
फूलोंके जापसे भगवान्की पूजा कर रही थीं ॥८८|| अत्यन्त स्वच्छ और जगमगाते हुए ताराओंसे देदीप्यमान आकाश, उस सरोवरके समान दिखायी देता था जिसका जल शरद् ऋतुके कारण स्वच्छ हो गया था तथा जिसमें कुमुदोंका समूह विद्यमान था ।।८२|| उस समय अन्यकी तो बात ही क्या थी अल्पबद्धिके धारक तिर्यंच आदि समस्त प्राणी भगवानको दरसे ही नमस्कार करते थे। भगवान् चतुर्मुख थे इसलिए चारों दिशाओंमें दिखाई देते और छाया आदिसे रहित थे ॥१०॥ भगवान् नेमि जिनेन्द्रके भोजन तथा सब प्रकारके उपसर्गोंका अभाव था सो ठीक हो है क्योंकि लोकके अद्वितीय स्वामीका ऐसा आश्चर्यकारी अद्भुत माहात्म्य होता ही है ॥९१। जिनका कल्याण होनेवाला था ऐसे प्रवादी लोग, अहंकारसे युक्त होनेपर भी आ-आकर भगवान्को नमस्कार करते थे सो ठीक ही है क्योंकि उन जैसा प्रभाव अन्तमें आश्चर्य करनेवाला एवं प्रतिपक्षीसे रहित होता ही है ॥१२॥ जिनके आगे-आगे इन्द्र चल रहा था ऐसे भगवान् जिस-जिस दिशामें पहुंचते थे उसी-उसी दिशाके दिक्पाल पूजनकी सामग्री लेकर भगवान्की अगवानीके लिए आ पहुंचते थे ॥९३॥ भगवान् जिस-जिस दिशासे वापस जाते थे उस-उस दिशाके दिक्पाल मंगल द्रव्य लिये हुए अपनी-अपनी सीमा तक पहुँचाने आते थे सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् उसी प्रकारके सार्वभौम थे-समस्त पृथिवीके अधिपति थे ॥९४।। त्रिमार्गगा अर्थात् गंगानदी अपने निश्चित तीन मार्गोंसे चलती है परन्तु वह देवोंकी सेना बिना मार्गके ही चल रही थीउसके चलनेके मार्ग अनेक थे। इस तरह वह सेना अतिशय पवित्र भगवान्से प्रभावित हो पृथिवीलोकको पवित्र कर रही थी ।।९५॥ उस देवसेनाके बीच दण्डके समान एक बहुत ऊंचा कान्तिदण्ड विद्यमान था जो नीचेसे लेकर ऊपर लोकके. अन्त तक फैला था और वापस आयी हई किरणोंसे यक्त था ॥९६॥ अन्य तेजधारियोंकी अपेक्षा उस कान्तिदण्डका तेज तिगन था। अपने तेजके द्वारा वह बड़ा स्थूल दिखाई देता था और सूर्यके सिवाय अन्य ज्योतिषियोंके समूहको तिरस्कृत करनेवाला था ॥९७|| उस कान्तिदण्डका प्रकाश लोकके अन्त तक व्याप्त था, रुकावटसे रहित था, गाढ़ अन्धकारको नष्ट करनेवाला था, और सूर्य के प्रकाशको अतिक्रान्त करनेवाला था ॥९८॥ उस कान्तिदण्डके बीच में पुरुषाकार एक ऐसा दूसरा कान्तिसमूह दिखाई देता था जो तेजका धारक था, अन्य तेजोमयके समान जान पड़ता था, एक
१. नयन्ति म.। २. अनुयान्त्या स्वंसोमानः ख. । अनुपान्त्या स्वसीमानः म.। ३. यातश्च क. । जातस्य ङ.. ४. प्रयान्त्येव क. । ५. भास्करादन्याज्ज्योतिष्टोमविरस्करः म. ख. । ६. नराकृतिः ङ. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org