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षष्टितमः सर्गः
७४३ पादः पल्यस्य पल्या त्रिपादी पल्यमेव तु । त्रिपाद्यधं च पादश्च व्युच्छेदानेहसः क्रमात् ॥४७५॥ आदिवः सप्ततीर्थेषु केवलश्रीनिरन्तरा । चन्द्राभस्य मुनेरन्ते सुविधेर्नवतिर्मता ॥४७६॥ तीर्थे चतुरशीतिस्तु शीतलस्य निरन्तरा । केवलज्ञानिनोऽन्यस्य द्वासप्ततिरुदाहृता ॥४७७॥ चत्वारिंशचतुर्युक्ता वासुपूज्यस्य पूजिता । चतुर्हानिस्तु दशसु द्वयोः केवलिनस्त्रयः ॥४७८॥ वीरकेवलिना कालो द्वाषष्टयब्दानि संस्तुतः । ततो वर्षशतं पूर्ण स्याच्चतुर्दशपूर्विणाम् ॥ ४७९॥ त्रयोऽशीस्या शताब्दानि भवन्ति दशविणाम् । विंशस्यङ्गभृतां युक्ताः कालो वर्षशतद्वयम् ॥४०॥
व्युच्छिन्न होकर पुनः-पुनः प्रवृत्त हुए ॥४७४।। पाव पल्य, अधं पल्यं, पौन पल्य, एक पल्य, पौन पल्य, अर्धपल्य और पाव पल्य, यह क्रमसे व्युच्छिन्न तीर्थोंके विच्छेदकालका प्रमाण है। भावार्थवृषभदेवसे लेकर पुष्पदन्त तक तो तीर्थ अविच्छिन्न रूपसे चलते रहे उसके बाद पुष्पदन्तके तीर्थमें जब पाव पल्य प्रमाण काल बाकी रह गया तब तीर्थ-धर्मका विच्छेद हो गया। तदनन्तर शीतलनाथके केवली होनेपर पुनः तीर्थ प्रारम्भ हुआ, इसी प्रकार धर्मनाथ पर्यन्त ऊपर लिखे अनुसार तीथं विच्छेद समझना चाहिए। शान्तिनाथसे लेकर महावीर पर्यन्त बीचमें तीर्थका विच्छेद नहीं है। महावीरका तीर्थ बयालीस हजार वर्ष तक चलेगा, उसके बाद विच्छिन्न हो जायेगा। तदनन्तर आगामी उत्सपिणो युगमें जब प्रथम तीर्थंकरको केवलज्ञान होगा तब पुनः तीर्थका प्रारम्भ होगा ॥४७५॥
प्रारम्भसे लेकर सात तीर्थंकरोंके तीर्थमें केवलज्ञानरूपो लक्ष्मी निरन्तर विद्यमान रही। उसके पश्चात् चन्द्रप्रभ और पुष्पदन्तके तीर्थमें नब्बे-नब्बे, शीतलनाथके तीर्थमें चौरासी, श्रेयांसनाथके तीर्थमें बहत्तर, वासुपूज्यके तीर्थमें चौवालीस, फिर विमलनाथसे लेकर नेमिनाथ तक दश तीथंकरोंके तीर्थमें चार-चार कम और अन्तिम दो तीर्थंकरोंके तीर्थमें तीन-तीन केवली अनुबद्ध हुए हैं अर्थात् एकके मोक्ष जानेके बाद दूसरेको केवलज्ञान हो गया है* ॥४७६-४७८॥
महावीर स्वामीके केवलियोंका काल बासठ वर्ष कहा गया है उसके बाद सा वर्ष चौदह पूर्वधारियोंका काल है, तदनन्तर एक सौ तेरासी वर्ष दश पूर्वधारियोंका समय है, फिर दो सौ बीस वर्ष ग्यारह अंगके पाठियोंका काल है, और इसके बाद एक सौ अठारह वर्ष आचारांगके
* तिलोयपण्णत्तिमें अनुबद्ध केवलियोंका वर्णन करते हुए दो मत दिये हैं। प्रथम मतके अनुसार आदिनाथसे लेकर दसवें तीर्थकर तक प्रत्येकके ८४, श्रेयांस और वासुपूज्यके क्रमसे ७२ और ४४, विमलनाथके ४०, अनन्तनाथके ३६, धर्मनाथके ३२, शान्तिनाथके २८, कुन्थुनाथके २४, अरनाथके २०, मल्लिनाथके १६, मुनिसुव्रतनाथके १२, नमिनाथ के ८, नेमिनाथके ४, पार्श्वनाथके ३ और महावीरके ३ अनुबद्ध केवली है तथा दूसरे मतके अनुसार-आदिनाथसे लेकर सातवें तीर्थंकर तक प्रत्येकके १००, चन्द्रप्रभके ९०, पुष्पदन्तके ९०, शीतलनाथके ९०, श्रेयांसनाथके ९०, वासुपूज्यके ८४, विमलनाथके ४०, अनन्तनाथके ३६, धर्मनाथके ३२, शान्तिनाथके २८, अरनाथके २०, मल्लिनाथके १६, मुनिसुव्रतनाथके १२, नमिनाथ के ८, नेमिनाथके ४, पाश्वनाथके ३ और महावीरके ३ अनुबद्ध केवली हैं । गाथाएं इस प्रकार हैं
दसमंते चउसीदी कमसो अणु बद्ध केवली होति । वाहत्तरि चउदालं सेयंसे वासुपुज्जे य ॥ १२१२ ॥ विमल जिणे चालोसं णवसु तदो चउ विविज्जिदा कमसो। तिण्णि च्चिय पासजिणे तिणि च्चिय वडढमाणम्मि ॥१२१३॥ आ सत्तमेक्क सयं उवरितिए पाउदि णउदि च उसीदी। सेसेसु पुश्वसंखा हवंति अणुबद्धकेवली अहवा ॥१२१४|| ति. प. अ.।
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