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हरिवंशपुराणे पताकाहस्तविक्षेपैः संतयं परवादिनः । दयामूर्ता इवेशांसा नृत्यन्ति जयकेतवः ॥१८॥ वैभवी विजयाख्यातिवैजयन्ती पुरेडिता। राजते त्रिजगक्षेत्रकुमुदामलचन्द्रिका ॥६९॥ भुवःस्वर्भूनिवासिन्यो भुवि यद्व्यन्तरा स्थिताः । नरीनृत्यन्ति देव्योऽग्रे प्रेमानन्दरसाष्टकम् ॥७॥ आमन्द्रमधुरध्वानाम्याप्तदिग्विदिगन्तरा । धीरं नानद्यते नान्दी जित्वा प्रावृधनावलीम् ॥७॥ जिताकर्को धर्मचक्रार्कः सहस्रारांशुदीधितिः। याति देवपरीवारो 'वियतातितमोपहः ॥७२॥ लोकानामेकनाथोऽयमेतैत ममतेति च । घुष्यते स्तनितैर?षणामयघोषणा ॥७३॥ मर्तृप्रमावसदृशा सत्पूर्व व्याप्य दिक्पथे । प्रकुर्वन्ति जयाह्वानं धावन्त: प्रथमोत्तमाः ॥७४।। देवयानामिमा दिव्यामन्वेत्य परमाद्भुताम् । अद्भुतान्यर्थदृष्टयादिसर्वाण्यसुभृतां भुवि ।।७५।।
आधयो नैव जायन्ते व्याधयो व्यापयन्ति न । ईतयश्चाज्ञया भतु नेति तद्देशमण्डले ॥७६।। अन्धाः पश्यन्ति रूपाणि शृण्वन्ति वधिराः श्रुतिम् । मूकाः स्पष्टं प्रभाषन्ते विक्रमन्ते च पङ्गवः ।।७।।
नात्युष्णा नातिनीताः स्युरहोरात्रादिवृत्तयः । अन्यच्चाशुभमत्येति शुभ सर्व प्रवर्धते ।।७।। था मानो आकाश सूर्योसे ही व्याप्त हो रहा हो ॥६७।। जगह-जगह विजय-स्तम्भ दिखाई दे रहे थे, उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पताकारूपी हाथोंके विक्षेपसे पर-वादियोंको परास्त कर दयारूपी मूर्तिको धारण करनेवाले भगवान्के मानो कन्धे ही नृत्य कर रहे हों ॥६८।। आगे-आगे भगवान्की विजय-पताका फहराती हुई सुशोभित थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानो तीन जगत्के नेत्ररूपी कुमुदोंको विकसित करने के लिए निर्मल चांदनी ही हो ॥६९॥ जो देवियां अधोलोक और ऊध्वंलोकमें निवास करती हैं तथा पृथिवीपर नाना स्थानोंमें निवास करनेवाली हैं वे भगवान्के आगे प्रेम और आनन्दसे आठ रस प्रकट करती हुई नृत्य कर रही थीं ।।७०|| जिसने अपनी गम्भीर और मधुर ध्वनिसे समस्त दिशाओं और विदिशाओंके अन्तरको व्याप्त कर रखा था ऐसी नान्दी-ध्वनि ( भगवत्स्तुतिकी ध्वनि) वर्षा ऋतकी मेघावलीको जीतकर बड़ी गम्भीरतासे बार-बार हो रही थी ॥७१॥ जिसने अपनी प्रभासे सूर्यको जीत लिया था, जो हजार अररूप किरणोंसे सहित था, देवोंके समूहसे घिरा हुआ था और अत्यधिक अन्धकारको नष्ट कर रहा था ऐसा धर्मचक्र आकाश-मार्गसे चल रहा था ।।७२।। आगे-आगे चलनेवाले स्तनितकुमार देव अभय घोषणाके साथ-साथ यह घोषणा करते जाते थे कि 'ये भगवान् तीन लोकके स्वामी हैं, आओ, आओ और इन्हें नमस्कार करो' ॥७३।। उस समय बहुत-से उत्तम भवनवासी देव, भगवान् नेमिनाथके प्रभावके अनुरूप दिशाओं और मार्गको अच्छी तरह व्याप्त कर दोड़ते हुए जय-जयकार करते जाते थे।७४॥ जो जोव अनेक आश्चर्योंसे भरी हुई भगवान्की इस दिव्ययात्रामें साथ-साथ जाते थे, पृथिवीपर उन्हें अर्थ-दृष्टिको आदि लेकर समस्त आश्चर्योंकी प्राप्ति होती थी। भावार्थउन्हें चाहे जहां धन दिखाई देना आदि अनेक आश्चर्य स्वयं प्राप्त हो जाते थे ॥७५॥ जिस देशमें भगवान्का विहार होता था उस देशमें भगवान्की आज्ञा न होनेसे ही मानो किसीको न तो आधि-व्याधि-मानसिक और शारीरिक पीड़ाएं होती थीं और न अतिवृष्टि आदि ईतियां हो व्याप्त होती थीं ॥७६॥ वहाँ अन्धे रूप देखने लगते थे, बहरे शब्द सुनने लगते थे, गूंगे स्पष्ट बोलने लगते थे और लंगड़े चलने लगते थे ॥७७॥ वहां न अत्यधिक गरमी होती थी, न अत्यधिक ठण्ड पड़ती थी, न दिन-रातका विभाग होता था, और न अन्य अशुभ कार्य अपनी अधिकता दिखला सकते
१. परिवादिनः म. । २. इवेशांशा म. । ३. विभोरियं वैभवी । ४. 'आशीर्वचनसंयुक्ता स्तुतिर्यस्मात्प्रयुज्यते । देवद्विजनपादीनां तस्मान्नान्दीति संज्ञिता ॥' ५. यति म., क.। ६. वियतीति म.। ७. आवयो व म. । ८.नः म.। ९. विक्रयन्ते च मः।
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