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एकोनषष्टितमः सर्गः
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पश्यन्त्यात्ममवान् सर्वे सप्त सप्त परापरान् । यत्र तद्भासतेऽत्यकं पश्चाद्भामण्डलं प्रभोः || ५७॥ "त्रिलोकीवान्तसाराभात्युपर्युपरि निर्मला । त्रिच्छश्री सा जिनेन्द्र श्रीस्त्रैलोक्येशित्वशंसिनी ॥ ५८ ॥ चामराण्यभितो भान्ति सहस्राणि दमेश्वरम् । स्वयंवीज्यानि शैलेन्द्रं हंसा इव नमस्तले || ५९ ॥ ऋषयोऽनुव्रजन्तीशं स्वर्गिणः परिवृण्वते । प्रतीहारः पुरो याति वासवो वसुभिः सह ॥ ६० ॥ ततः केवललक्ष्मीतः प्रतिपद्या प्रकाशते । साकं शच्या त्रिलोकोरुभूतिर्लक्ष्मीः समङ्गला ॥ ६१ ॥ श्रीनाथैस्ततः सर्वैर्भयते पूर्णमङ्गलैः । मङ्गलस्य हि माङ्गल्या यात्रा मङ्गलपूर्विका ॥ ६२ ॥ शङ्खपद्मौ ज्वलन्मौलिसाथयौ सवकामदौ । निधिभूतौ प्रवर्तेते हेमरत्नप्रवर्षिणौ ॥ ६३ ॥ भास्वत्फणामणिज्योतिदीपिका मान्ति पन्नगाः । हतान्धतमसज्ञानदीपदीप्स्य नुकारिणः ॥ ६४ ॥ विश्वे वैश्वानरा यान्ति धृतधूपघटोद्धताः । यद्गन्धो याति लोकान्तं जिनगन्धस्य सूचकः ॥ ६५ ॥ सौम्याग्नेयगुणा देवभक्ताः सोमदिवाकराः । स्वप्रभामण्डलादर्श मङ्गलानि वहन्त्यहो ॥ ६६ ॥ तपनीय मछर्न मस्तपनरोधिभिः । तपनैरेव सर्वत्र संरुद्धमिव दृश्यते ॥ ६७॥
उसी पुष्पमण्डपमें भगवान् के पीछे सूर्यको पराजित करनेवाला भामण्डल सुशोभित होता था जिसमें सब जीव अपने आगे-पीछेके सात-सात भव देखते हैं ॥५७॥ भगवान् के शिरपर ऊपरऊपर अत्यन्त निर्मल तीन छत्र सुशोभित हो रहे थे जिनमें तीनों लोकों के द्वारा सार तत्त्व प्रकट किया गया था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो वह जिनेन्द्र भगवान्की लक्ष्मी तीन लोकके स्वामित्वको सूचित ही कर रही थी ||१८|| भगवान् के चारों ओर अपने-आप दुलनेवाले हजारों चमर ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे आकाशतलमें मेरु पर्वत के चारों ओर हंस सुशोभित होते हैं ॥५९॥
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ऋषिगण भगवान् के पीछे-पीछे चल रहे थे, देव उन्हें घेरे हुए थे और इन्द्र प्रतिहार बनकर आठ वसुओं के साथ भगवान् के आगे-आगे चलता था ॥ ६० ॥ इन्द्रके आगे तीन लोककी उत्कृष्ट विभूतिसे युक्त लक्ष्मी नामक देवी, मंगलद्रव्य लिये शची देवीके साथ-साथ जा रही थी और वह केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी के प्रतिविम्बके समान जान पड़ती थी || ६१ ॥ तदनन्तर श्रीदेवीसे सहित समस्त एवं परिपूर्ण मंगलद्रव्य विद्यमान थे सो ठीक ही है क्योंकि मंगलमय भगवान्की मंगलमय यात्रा मंगलद्रव्योंसे युक्त होती ही है ||६२|| उनके आगे, जिनपर देदीप्यमान मुकुटके धारक प्रमुख देव बैठे थे ऐसी शंख और पद्म नामक दो निधियां चलती थीं। ये निधियों समस्त जीवोंको इच्छित वस्तुएँ प्रदान करनेवाली थीं तथा सुवर्ण और रत्नोंकी वर्षा करती जाती थीं ॥ ६३ ॥ उनके आगे फणाओं पर चमकते हुए मणियोंकी किरणरूप दीपकोंसे युक्त नागकुमार जातिके देव चलते थे और वे अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाले केवलज्ञानरूपी दीपकको दीप्तिका अनुकरण करते हुए-से जान पड़ते थे || ६४ ||
उनके आगे धूपघटोंको धारण करनेवाले समस्त अग्निकुमार देव चल रहे थे । उन धूपघटोंकी गन्ध लोकके अन्त तक फैल रही थी और वह जिनेन्द्र भगवान्की गन्धको सूचित कर रही थी ||६५|| तदनन्तर शान्त और तेजरूप गुणको धारण करनेवाले, भगवान्के भक्त, चन्द्र और सूर्य जातिके देव अपनी प्रभाके समूहरूप मंगलमय दर्पणको धारण करते हुए चल रहे थे || ६६ ॥ उस समय सन्तापके रोकने के लिए सुवर्णमय छत्र लगाये गये थे, उनसे सर्वत्र ऐसा जान पड़ता
१. त्रिलोकीवात्तसारा - क. । २. त्रयाणां छत्राणाम् समाहारः त्रिछत्री । ३. त्रिछत्रीशो ख. । ४. प्रतिपद्या ख. । प्रतिप्राज्या क । ५. साकं सच्या त्रिलोकोरुभूतिलक्ष्मीः क. । ६. धूतधूमघटोद्धताः म. । ७ मङ्गलादर्शमङ्गलानि क., ङ. । ८. तपनीयैरेव म., ख., ङ.
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