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हरिवंशपुराणें
आयुर्लक्षा बलानां स्युः सप्ताशीतिश्च सप्ततिः । सप्तोत्तरा तथा षष्टिः पञ्चत्रिंशद्दश क्रमात् ॥ ३२९॥ षष्टिवर्षसहस्राणि त्रिंशद्दश च सप्तभिः । द्विशत्याब्दसहस्रं तु तच्चरमस्य बलस्य तु ॥ ३२३॥ वृषाद्याः धर्मपर्यन्ता जिनाः पञ्चदश क्रमात् । निरन्तरास्ततः शून्ये त्रिजिनाशून्ययोर्द्वयम् ॥ ३२४॥ "जिनः शून्यद्वयं तस्माजिनः शून्यद्वयं पुनः । 'जिनः शून्यं जिनः शून्यं द्वौ जिनेन्द्रौ निरन्तरौ ॥३२५॥ चक्रिणौ मरतायौ द्वौ तौ शून्यानि त्रयोदश । षट्चक्रिणत्रिशून्यानि चक्री शून्यं च चक्रभृत् ॥ ३२६ ॥ ततः शून्यद्वयं चक्री शून्यं चक्रधरस्ततः । शून्ययोर्द्वितयं तस्मादिति चक्रधरक्रमःः ॥ ३२७॥॥ शून्यानि दश पञ्चातस्त्रिपृष्टाद्यास्तु केशवाः । शून्यषट्कं ततश्चैकः केशवो व्योमकेशवः ॥३२८॥ त्रिशून्यं केशवश्चैकः शून्यद्वितयमध्यतः । केशवस्त्रीणि शून्यानि केशवानामयं क्रमः ॥ ३२९॥
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सतासी लाख, सत्तर लाख, सड़सठ लाख, पैंतीस लाख, दश लाख, साठ हजार, तीस हजार, सत्रह हजार और बारह सौ वर्षं यह क्रमसे बलभद्रोंकी आयु है || ३२२- ३२३|| तीर्थंकरोंके काल चक्रवर्ती तथा नारायणोंका क्रम जाननेके लिए चौंतीस कोठाका एक यन्त्र बनाना चाहिए | उसके नीचे चौंतीस-चौंतीस कोठाके दो यन्त्र और बनाना चाहिए। ऊपरके यन्त्र में तीर्थंकरोंका, बीचके यन्त्रमें चक्रवर्तियोंका और नीचेके यन्त्रमें नारायणों का विन्यास करे । यन्त्र में तीर्थंकरों के लिए एकका अंक, चक्रवर्तियोंके लिए दोका अंक और नारायणोंके लिए तीनका अंक प्रयुक्त किया जाता है । ऊपरके यन्त्र में ऋषभनाथसे लेकर धर्मनाथ तक पन्द्रह तीर्थंकरोंका क्रमसे विन्यास करना चाहिए अर्थात् प्रारम्भसे लेकर पन्द्रह खानोंमें एक-एक लिखना चाहिए। उसके बाद दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर दो शून्य, फिर एक तीर्थंकर, फिर एक शून्य और फिर लगातार दो तीर्थंकर इस प्रकार तीर्थंकरों का विन्यास करना चाहिए। तदनन्तर नीचेके यन्त्र में भरत आदि दो चक्रवर्ती, फिर तेरह शून्य, फिर छह चक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर एक शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर दो शून्य, फिर एक चक्रवर्ती, फिर तीन शून्य, फिर एक चक्रवर्ती और फिर दो शून्य इस प्रकार चक्रवर्तियों का क्रमसे विन्यास करे । तदनन्तर नीचेके यन्त्रमें प्रारम्भमें दश शून्य, फिर त्रिपृष्ट आदि पाँच नारायण, फिर छह शून्य, फिर एक नारायण, फिर एक शून्य, फिर एक नारायण, फिर तीन शून्य, फिर एक नारायण, फिर दो शून्य, फिर एक नारायण और फिर तीन शून्य इस प्रकार क्रमसे नारायणोंका विन्यास करे । इसकी संदृष्टि इस प्रकार है* -
भावार्थ - भरत चक्रवर्ती वृषभनाथके समक्ष, सगर चक्रवर्ती अजितेश्वरके समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती, धर्मनाथ और शान्तिनाथके अन्तराल में हुए हैं । शान्ति,
|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|१|०|०|१|१|१|०|०|१|०|०|१|०|०/१ ०/१/०/१/१ २/२|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|२|२| २|२| २|२|०|०|०|२| २|२|०|०|२|०|२/०/० |०|०|०|०|०|०|०|०|०|०|३|३|३| ३ | ३|०|
१. जिने म । २. जिने म । ३. चक्रधराः क्रमात् ङ. ।
* यह प्रकरण तिलोयष्णत्तिके चतुर्थं महाधिकारसे लिया हुआ जान पड़ता है, वहाँ इस प्रकरणकी गाथाएँ इस प्रकार हैं
रिसहेसरस्स भरहो सगरो अजिरासरस्स पच्चक्खं । मघवा सणक्कुमारो दो चक्की धम्म संति विच्चाले ॥ १२८३ ॥ अह संति कुन्थु अर जिण तित्थयरा ते च चक्कवट्टित्ते । एक्को सुभउमचक्की अरमल्लीणंतरायम्मि ।। १२८४ ॥
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|०|०|०|३|०|३|०|०|०|३|०|०|३|०|०|०|
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