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हरिवंशपुराणे तत्राक्रीडपदानि स्युः सुन्दराणि निरन्तरम् । यत्र 'हृष्टाः स्वकान्तामिराक्रोड्यन्ते नरामराः ॥४५॥ मोग्यान्यपि यथाकामं मगोगिनां भोगभूमिवत् । सर्वाण्यन्यूनभूतीनि संभवन्स्यन्तरेऽन्तरे ॥४६।। योजनत्रयविस्तारो मार्गो मार्गान्तयोर्द्वयोः । सीमानौ द्वे अपि ज्ञेये गम्यूतिद्वयविस्तृते ॥४॥ तोरणैः शोमते मार्गः करणैरिव कल्पितैः । दृष्टिगोचरसंपनैः सौवणैरष्टमङ्गलैः ॥४८॥ कामशाला विशालाः स्युः कामदास्तत्र तत्र च । भागवस्यो यथा मूर्ताः कामदा दानशक्तयः ।।४।। तोरणान्तरभूतुगसमस्तकदलीध्वजैः । संछन्नोऽध्वा धनच्छायो रुणद्धि सवितुश्छविम् ।।५०॥ वनवासिसुरैर्वन्यमञ्जरीपुजपिजरः । स्वपुण्यप्रचयाकारः कल्प्यते पुष्पमण्डपः ॥५१॥ युक्तो रत्नलताचित्रभित्तिमिः सद्वियोजनः । चन्द्रादित्यप्रभारोचिर्मण्डलोपान्तमण्डितः ॥५२॥ घण्टिकाकलनिदिर्घण्टानादेनिनादयन् । दिशो 'मुक्कागुणामुक्तप्रान्तमध्यान्तरान्तरः ॥५३॥ सद्गन्धाकृष्टसंभ्रान्तभृजमालोलसद्यतिः । वियतीशयशोमूर्तवितानच्छविरीक्ष्यते ॥५४॥. सोत्तम्मस्तम्मसंकाशेः स्थूलमुक्कागुणोद्भवः । चतुर्मिर्दाममि ति विद्मान्तान्तराचितैः ॥५५॥ तस्यान्तस्थो दयामूर्तिः प्रयाति दमिताहितः । हिताय सर्वलोकस्य स्वयमीशः स्वयंप्रभः ।।५६॥ थीं ॥४४॥ मार्ग में निरन्तर सुन्दर क्रोड़ाके स्थान बने हुए थे जिनमें हर्षसे भरे मनुष्य और देव अपनी खियोंके साथ नाना प्रकारको क्रीड़ा करते थे ॥४५।। जिस प्रकार भोग-भूमिमें भोगी जीवोंको इच्छानुसार भोग्य वस्तुएं प्राप्त होती हैं, उसी प्रकार उस मार्गमें भी, बीच-बीच में भोगी जीवोंको उत्कृष्ट विभूतिसे युक्त सब प्रकारको भोग्य वस्तुएं प्राप्त होती रहती थीं ॥४६।। भगवान्के विहारका वह मार्ग तीन योजन चौड़ा बनाया गया था तथा मार्गके दोनों ओरकी सीमाएँ दो-दो कोस चौड़ी थों ।।४७।। वह मार्ग, जगह-जगह निर्मित तोरणों तथा दृष्टिमें आनेवाले सुवर्णमय अष्टमंगलद्रव्योंसे ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो इन्द्रियोंसे ही सुशोभित हो रहा हो ॥४८॥ मार्गमें जगहजगह भोगियोंको इच्छानुसार पदार्थ देनेवाली बडी-बड़ी कामशालाएँ बनी हई थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो इच्छानुसार पदार्थ देनेवाली भगवान्को मूर्तिमती दानशक्तियाँ ही हों ॥४९|| तोरणोंको मध्यभूमिमें जो ऊंचे-ऊँचे केलेके वृक्ष तथा ध्वजाएं लगी हुई थीं उनसे आच्छादित हुआ मार्ग इतनी सघन छायासे युक्त हो गया था कि वह सूर्यकी छविको भी रोकने लगा था ॥५०॥ वनके निवासी देवोंने वनकी मंजरियोंके समूहसे पीला-पीला दिखनेवाला पुष्पमण्डप तैयार किया था जो उनके अपने पुण्यके समूहके समान जान पड़ता है ॥५१॥ वह पुष्पमण्डप रत्नमयी लताओंके चित्रोंसे सुशोभित दीवालोंसे युक्त था, दो योजन विस्तारवाला था, चन्द्रमा और सूर्यको प्रभाके कान्तिमण्डलसे समीपमें सुशोभित था, छोटी-छोटी घण्टियोंकी रुनझुन और घण्टाओंके नादसे दिशाओंको शब्दायमान कर रहा था. उसके दोनों छोर तथा मध्यका अन्तर मोतियोंकी मालाओंसे युक्त था, उत्तम गन्धसे आकर्षित हो सब ओर मंडराते हुए भ्रमरोंके समूहसे उसको कान्ति उल्लसित हो रही थी, आकाशमें उसका चंदेवा भगवान्के मूर्तिक यशके समान दिखाई देता था, उस मण्डपके चारों कोनोंमें ऊँचे खड़े किये हुए खम्भोंके समान सुशोभित, बड़े-बड़े मोतियोंसे निर्मित तथा बीच-बीचमें मूगाओंसे खचित चार मालाएं लटक रही थीं, उनसे वह अधिक सुशोभित हो रहा था। दयाकी मूर्ति, अहितका दमन करनेवाले,
यं ईश एवं स्वयं देदीप्यमान भगवान् नेमि जिनेन्द्र उस मण्डपके मध्य में स्थित हो समस्त जीवोंके हितके लिए विहार कर रहे थे ।।५२-५६।। १. दृष्टा म. । २. सर्वाण्यनूनभूतीनि ख. । ३. सीमानौ द्वावपि ज्ञेयौ क., ख., ङ. । ४. कारण म. । गव्यूतिद्वयविस्तृतो म., क., ड., ख. । ५. घटिकाकलनिर्बादी म.। ६. मुक्तागणामुक्तं प्रातमध्वान्ततान्तरः म.। ७. स्वोत्तम्भस्तम्भ-म.। ८. -तराविलैः क. । ९. दयिताहितः म. ।
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