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षष्टितमः सर्गः
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सुताभूदेवसेनायां यक्षिलस्य गृहेशिनः । यक्षाराधनतो लब्धा यक्षदेवी स्वनामतः ॥६३॥ सा यक्षगृहपूजार्थमन्यदा प्रगतात्र च । धर्मसेनगुरोरन्ते धर्म शुश्राव गौरवात् ॥६४॥ आहारदानमस्मै सा पात्रायातिथयेऽन्यदा । दत्वा भक्तिमती कन्या पुण्यबन्धं बबन्ध च ॥६५॥ सखीमिः क्रीडितं याता कदाचिद्विमलाचलम् । तत्र चाकालवर्षण पीडिता प्राविशद् गुहाम् ॥६६॥ तत्र सिंहेन संत्रस्ता ग्रस्ता त्यक्तारमविग्रहा। बभूव हरिवऽसौ द्विपल्योपमजीविता ॥६७॥ ज्योतिर्लोकमतो गत्वा पल्पोपमसमस्थितिः। तच्च्युत्वा पुष्कलावत्यां जम्बूद्वीपस्य मारते ॥६॥ वीतशोकाभिधानायामशोकस्य महीपतेः। श्रीमत्यामभवत् कन्या श्रीकान्ता नामतः सुता ॥६९॥ जिनदत्तायिकोपान्ते विनिष्क्रम्य कुमारिका । रत्नावलिं तपः कृत्वा माहेन्द्राधिपतेः प्रिया ॥७॥ भूत्वैकादशपल्यायुर्मुक्त्वा स्वर्गसुखं च्युता । सुज्येष्टायां सुराष्ट्रेषु राष्ट्रवर्धनभूभृतः ॥७॥ सुसीमा तनयाभस्त्वं नगरे गिरिपूर्वके । देवो मृत्वा तपः शक्त्या मोक्ष्यसे नृभवे ततः ॥७२॥ निशम्यात्मभवानित्थं सुसीमा सौम्यमानसा । प्रकृष्टासन्ननिष्ठेति निष्ठितार्थ ननाम सा ॥७३॥ पृष्टो लक्ष्मणया गत्वा जिनः प्रोवाच तद्भवान् । जिनाः सर्वहिताः सर्वे यत्प्रश्नोत्तरवादिनः ॥७॥ द्वीपेऽस्मिन् कच्छकावस्यां सीताया उत्तरे तटे । राजारिष्टपुरे ह्यासीद्वासवो वासवोपमः ॥७५॥
सुमित्राख्या प्रियास्यासौ वन्दितुं साङ्गनो ययौ । गुरुं सागरसेनाख्यं सहस्राम्रवनस्थितम् ॥७६॥ ज्वलनवेगाका जीव इन्हीं दोनोंके एक पुत्री हुआ। वह पुत्री चूंकि यक्षकी आराधनासे प्राप्त हुई थी इसलिए उसका यक्षदेवी यही नाम प्रसिद्ध हो गया ।। ६२-६३।। किसी समय वह यक्षदेवी, यक्षगृहकी पूजाके लिए गयी थी। वहाँ उसने धर्मसेन गुरुके समीप बड़े गौरवसे धर्म उपदेश सुना ॥६४।। किसी दिन उस भक्तिमती कन्याने उक्त मुनिके लिए आहार दान दिया और उसके फलस्वरूप पूण्यबन्ध बांधा ॥६५|| किसी समय वह यक्षदेवी सखियोंके साथ क्रीडा करनेके लिए विमल नामक पर्वतपर गयी थी वहाँ अकाल वर्षासे पीड़ित होकर वह एक गुफामें घुस गयी ॥६६।। उस गुफामें पहलेसे सिंह बैठा था सो उस सिंहने देखते ही यक्षदेवीको खा लिया। यक्षदेवी अपना शरीर छोड़ हरिवर्ष क्षेत्रमें दो पल्यकी धारक आर्या हुई ॥६७॥ वहांसे चयकर वह ज्योतिष लोकमें एक पल्यकी आयुवाली देवी हुई। तदनन्तर वहाँसे च्युत हो जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रके पुष्कलावती देशमें वीतशोका नामक नगरीके राजा अशोककी श्रीमती नामक रानीसे श्रीकान्ता नामकी पुत्री हुई ॥६८-६९।। श्रीकान्ताने कुमारी अवस्थामें ही जिनदत्ता आर्यिकाके पास दीक्षा लेकर रत्नावली नामका तप किया और उसके फलस्वरूप वह माहेन्द्रस्वर्गके इन्द्रको ग्यारह पल्यकी आयुवाली प्रिय देवी हुई। स्वर्गके सुख भोगकर वहांसे च्युत हुई और सुराष्ट्र देशके गिरिनगरमें राष्ट्रवर्धन राजाकी सुज्येष्ठा नामक रानीसे तू सुसीमा नामकी पुत्री हुई है। अब तू तपकी शक्तिसे देव होगी और तदनन्तर मनुष्य पर्याय प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त करेगी ।।७०-७२॥ इस प्रकार अपने भव श्रवण कर तथा अपना संसार अत्यन्त निकट जानकर सुसीमा बहुत प्रसन्न हुई और उसने कृतकृत्य भगवान् नेमिजिनेन्द्रको नमस्कार किया ॥७३॥
तदनन्तर लक्ष्मणा नामक पाँचवीं पट्टरानीने नमस्कार कर भगवान्से अपने पूर्वभव पूछे सो भगवान् उसके पूर्वभव कहने लगे। चूँकि समस्त तीर्थंकर भगवान् प्रश्नोंका उत्तर, निरूपण करते हैं इसलिए वे सर्वहितकारी कहलाते हैं ।।७४। उन्होंने कहा कि इसी जम्बूद्वीपकी सीता नदीके उत्तर तटपर एक कच्छकावती नामका देश है। उसके अरिष्टपुर नगरमें किसी समय इन्द्रकी उपमाको धारण करनेवाला एक वासव नामका राजा रहता था। उसकी सुमित्रा नामकी वल्लभा थी। एक दिन वह अपनी वल्लभाके साथ, सहस्राम्र वनमें स्थित सागरसेन नामक
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