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हरिवंशपुराणे
egeवाभूदिह कौशाम्ब्यां सुमित्रायां सुभद्रतः । इभ्याद्धर्ममतिर्नाम्ना कन्या धर्ममतिः सदा ॥ १०१ ॥ जिनमस्यायिकापावें तपो जिनगुणाभिधम् । गृहीत्वोपोष्य जातासि महाशुक्रेन्द्र वल्लभा ॥ १०२॥ एकविंशतिपल्यायुश्च्युत्वा चन्द्रमतिस्त्रियाम् । गौरी त्वं वीतशोकायां मेरुचन्द्रादभूत्सुता ॥ १०३ ॥
सिद्धिस्त्रिभिस्ते स्यादित्युक्ते सा नता विभुम् । प्रणिपत्य ततः पृष्टः पद्मावत्या भवान् जगौ ॥ १०४ ॥ उज्जयिन्यामि हैवासीदपराजितभूभृतः । तनया विनयश्रीः सा विजयावनिताङ्गजा ॥१०५॥ हस्तिशीर्षपुराधीशं हरिषेणमसौ पतिम् । प्राप्ता पतियुता दानं वरदत्ताय संददौ ॥ १०६ ॥ कालागुरुकधूपेन भर्ना गर्भगृहे मृता । भूत्वा हैमवते भुक्त्वा सुखं पल्यसमस्थितिः ॥ १०७ ॥ जाता चन्द्रप्रभादेवी ततश्चन्द्रस्य वल्लमा । पल्योपमाष्टभागायुरतश्च्युत्वा तु भारते ॥ १०८ ॥ ग्रामेऽभूच्छाल्मलीखण्डे मगधेषु गृहेशिनोः । दुहिता पद्मदेवीति देविलाजयदेवयोः ॥ १०९ ॥ 'आचार्याद्वरधर्माख्यादेकदा व्रतमग्रहीत् । यावज्जीवं न मक्ष्यं मे फलमज्ञातमप्यसौ ॥ ११० ॥ 'प्रचण्डः शाल्मलीखण्डे ग्रामेऽवस्कन्ददानतः । अकाण्डे चण्डबाणाख्यो व्याधमुख्योऽहरज्जनम् ॥ १११ ॥ वन्दिगेहे गृहीत्वा तां पद्मदेवीं स्वदारताम् । निनीषुः शीलवत्यासौ प्रत्याख्यातोऽनया नयात् ॥ ११२ ॥ स राजगृहनाथेन राज्ञा सिंहरथेन तु । हठेन निहतोऽरण्येऽशरण्ये जनताभ्रमत् ॥११३॥
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वहाँसे च्युत हो कौशाम्बी नगरी में सुभद्र सेठकी सुमित्रा नामकी बीसे सदा धर्ममें बुद्धि लगानेवाली धर्ममति नामकी कन्या हुई || १०१ || धर्ममतिने जिनमति आर्थिक के पास जिनगुण नामका तप लेकर उपवास किये और उनके फलस्वरूप वह महाशुक स्वर्गके इन्द्रकी वल्लभा हुई ||१०२ || वहाँ उसकी इक्कीस पल्यकी आयु थी । वहाँसे च्युत होकर अब तू वीतशोका नगरीमें राजा मेरुचन्द्रकी चन्द्रमति खोसे गौरी नामकी पुत्री हुई है || १०३ || तीन भवमें तुझे मुक्तिकी प्राप्ति होगी। इस प्रकार कहे जानेपर गौरीने नम्रीभूत होकर भगवान्को प्रणाम किया । तदनन्तर कृष्णकी आठवीं पट्टरानी पद्मावतीने भी अपने पूर्वभव पूछे जिसके उत्तर में भगवान् उसके पूर्वंभव इस प्रकार कहने लगे ॥ १०४ ॥
इसी भरत क्षेत्रकी उज्जयिनी नगरी में किसी समय अपराजित नामका राजा रहता था । उसकी स्त्री विजया थी और उन दोनोंके विनयश्री नामकी पुत्री थी || १०५ || विनयश्री हस्तिनापुरके राजा हरिषेण पतिको प्राप्त हुई थी अर्थात् उसका विवाह हस्तिनापुरके राजा हरिषेण के साथ हुआ था । एक दिन उसने पतिके साथ, वरदत्त मुनिराज के लिए आहार दान दिया ॥ १०६॥ कदाचित् वह अपने पति के साथ गर्भगृहमें शयन कर रही थी कि कालागुरुकी धूपसे उसका प्राणान्त हो गया । मरकर वह हैमवत क्षेत्रमें एक पल्यको आयुवाली आर्या हुई । वहाँके सुख भोगकर वह चन्द्रदेवकी चन्द्रप्रभा नामकी देवी हुई। वहां पल्यके आठवें भाग उसकी आयु थी । वहाँसे च्युत हो भरतक्षेत्रके मगध देश सम्बन्धी शाल्मली खण्ड नामक ग्राम में देविला और जयदेव नामक दम्पतीके पद्मदेवी नामकी पुत्री हुई || १०७ - १०९ || एक समय उसने वरधर्मं नामक आचार्यसे यह व्रत लिया कि मैं जीवन पर्यन्त अज्ञात फलका भक्षण नहीं करूँगी ||११० || किसी एक दिन असमय में चण्डबाण नामक शक्तिशाली भील शाल्मली खण्ड ग्रामपर आक्रमण कर वहाँकी समस्त प्रजाको हर ले गया ।। १११|| साथ ही पद्मदेवीको भी पकड़कर अपने कारागार में ले गया। वह उसे अपनी स्त्री बनाना चाहता था परन्तु शीलवती पद्मदेवीने किसी नीतिसे उसका निराकरण कर दिया ॥ ११२ ॥ उसी समय राजगृहके राजा
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१. नु म । २. आचार्यद्भूतमर्धाख्यात् क, ख, ग, ङ, आचार्यादूरधर्माख्यात् म. । म., क., ख., ङ । ४ वस्कन्दनामतः म. क., ङ । ५. स्तरण्ये क . ।
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३. प्रचण्डशाल्मली
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