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पष्टितमः सर्गः
ततश्चात्रोत्तर श्रेण्यां पुरे गगनवल्लभे । विद्युद्वेगस्य कन्याभूद्विद्युन्मत्यां महाद्युतिः ॥ ८९ ॥ विनयश्रीगुणैः ख्याता नित्या लोकपुरेशिनः । महेन्द्रविक्रमस्यैषा योषिद्गुणसमन्विता ॥ ९० ॥ चारणश्रमणाभ्यां तु धर्मं श्रुत्वा स मन्दरे । राज्ये नियोज्य निष्क्रान्तो नन्दनं हरिवाहनम् ॥९१॥ विनयश्रीस्तु कृत्वासौ सर्वभद्रमुपोषितम् । पञ्चपल्यस्थितिर्जाता सौधर्मेन्द्रस्य वल्लभा ॥ ९२ ॥ पुर्यां स्वं पुष्कलावत्यां गान्धारेषु दिवश्च्युता । गान्धारीन्द्रगिरे राज्ञो मेरुमत्यामभूत्सुता ॥९३॥ तृतीयभवसिद्धिस्त्वमित्युक्ते सानमज्जिनम् । गौर्या विज्ञापितो नत्वा तद्भवानाह विश्ववित् ॥९४॥ इभ्यस्येभ्य पुरेऽत्राभूद्ध नदेवस्य कामिनी । यशस्विनी स्थिता हयें चारणौ वीक्ष्य साम्बरे ॥९५॥ सस्मार स्वभवान् सर्वान् धातकीखण्डमण्डले । पूर्वस्य मन्दरस्यासं विदेहेष्वपरेष्वहम् ॥९६॥ आनन्द श्रेष्ठिनः पत्नी नन्दशोकपुरेऽर्हते । मितसागरनाम्नेऽत्र दानं दत्वा सभर्तृका ॥ ९७ ॥ पञ्चाश्चर्याण्यहं प्रापं कृतानि त्रिदशैर्मुदा । पीत्वाकाशोदकं भर्त्रा सविषं मृतवत्यमा ॥९८ ॥ मूत्वा देवकुरुष्वासमैशानेन्द्र प्रिया ततः । जातात्राहमिति ज्ञात्वा सा संवेगपरा यतिम् ॥९९॥ नत्वा सुभद्रनामानं प्रोषधव्रतमग्रहीत् । मृत्वा शक्रस्य देव्यासीत्पञ्चपल्यसमस्थितिः ॥ १००॥
गगनवल्लभ नगर के स्वामी राजा विद्युद्वेगकी विद्युन्मती नामक रानीसे महाकान्तिको धारक विनयश्री नामको कन्या हुई । यह कन्या गुणोंसे अत्यन्त प्रसिद्ध थी और नित्यालोक नगरके स्वामी राजा महेन्द्रविक्रमको गुणवती स्त्री हुई। कदाचित् सुमेरु पर्वतपर चारण ऋद्धिके धारक युगल मुनियों से धर्मं श्रवण कर राजा महेन्द्रविक्रम संसारसे विरक्त हो गया और उसने हरिवाहन नामक पुत्रको राज्य कार्य में नियुक्त कर दीक्षा धारण कर ली ।।८९-९१ ।। विनयश्रीने भी संसार से विरक्त हो सर्वभद्र नामक उपवास किया और उसके प्रभावसे वह पाँच पल्यकी स्थितिकी धारक सौधर्मेन्द्रकी देवी हुई ||९२ || अब तू स्वगंसे च्युत होकर गान्धार देशकी पुष्कलावती नगरीमें राजा इन्द्रगिरिकी मेरुमती नामक रानीसे गान्धारी नामकी पुत्री हुई || ९३ || तू तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करेगी। इस प्रकार अपने भवान्तरके कहे जानेपर गान्धारीने जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार किया । तदनन्तर कृष्णकी सातवीं पट्टरानी गौरीने नमस्कार कर अपने पूर्वभव पूछे सो समस्त पदार्थोंको जाननेवाले भगवान् इस प्रकार उसके पूर्वभव कहने लगे ||२४||
इस भरत क्षेत्रके इभ्यपुर नगर में किसी समय धनदेव नामका एक सेठ रहता था। उसकी यशस्विनी नामकी स्त्री थी । एक दिन यशस्विनी अपने महलको छतपर खड़ी थी वहाँ उसने आकाशमें जाते हुए दो चारण ऋद्धिधारी मुनि देखे ||१५|| उन्हें देखते उसे अपने समस्त पूर्वभवोंका स्मरण हो गया । उसे मालूम हो गया कि मैं धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरुकी पश्चिम दिशामें विद्यमान विदेह क्षेत्रके अन्तर्गत नन्दशोक नामक नगर में आनन्द नामक सेठकी पत्नी थी । वहाँ मैंने अपने पति के साथ, मितसागर नामक मुनिराजके लिए आहार दान दिया। जिसके फलस्वरूप मैं हर्षपूर्वं देवोंके द्वारा किये हुए पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे। कदाचित् हम दोनोंने आकाशसे पड़ता हुआ वर्षाका पानी पिया। वह पानी विष सहित था इसलिए पतिके साथ मेरा मरण हो गया ।। ९६-९८ ।
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मरकर मैं देवकुरुमें आर्या हुई । उसके बाद ऐशानेन्द्रकी प्रिया हुई और उसके बाद यहाँ यशस्विनी हुई हूँ । इस प्रकार जानकर संसारसे भयभीत होती हुई यशस्विनीने सुभद्र नामक मुनिराजको नमस्कार कर उनसे प्रोषधवत ग्रहण किया । तदनन्तर मरकर पाँच पल्यकी आयुकी धारक प्रथम स्वर्ग के इन्द्रकी इन्द्राणी हुई । ९९-१०० ।।
१. सर्वज्ञः, नेमिजिनेन्द्रः ।
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