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षष्टितमः सर्ग:
७०७ पुष्पदन्तजिनेन्द्रस्य तीर्थे व्युच्छेदभावतः । अभावे जिनमार्गज्ञभव्यानां मरतक्षितौ ॥१२॥ गोभूकन्याहिरण्यादिदानानि विषयातुरः । पापबन्धनिमित्तानि विप्रः प्रज्ञाप्य सोऽवनौ ॥१३॥ मोहयित्वा जडं लोक राजलोकपुरोगमत् । प्रवृत्तः पापवृत्तेषु सप्तमी पृथिवीमितः ॥१४॥ उद्वापि परिभ्रम्य तिर्यनारकयोनिषु । काकतालोययोगेन मानुषत्वमुपागतः।।१५।। गन्धावतीसरित्तीरे गन्धमादनपर्वते । व्याधः पर्वतको नाम्ना वल्लरीवल्लमोऽभवत् ॥१६॥ श्रीधरं धर्मसंज्ञं चचारणश्रमणौ गिरौ । दृष्ट्वोपशमकृत्वाभ्यां प्रेषितं धर्मकालमाक् ।।१७।। ज्योतिर्मालाख्यखेचर्यामलकायां महाबलात् । जातः शतबलिभ्राता स पुत्रो हरिवाहनः ॥१८॥ राजा राज्ये नियोज्यैतौ प्रव्रज्य श्रीधरान्तिके । प्रव्रज्यायाः फलं मुख्यं मोक्षसौख्यमवाप सः ॥१९॥ निर्वासितो विरोधस्थो ज्येष्टेन हरिवाहनः । मगलीदेशशैलेऽस्थादम्बुदावर्तनामनि ॥२०॥ श्रीधर्मानन्तवीर्याख्यौ चारणौ वीक्ष्य तत्र सः। प्रव्रज्याराध्य स प्रापत् कल्पमैशानमेव च ॥२१॥ भुक्त्वा देवसुखं देवश्च्युत्वा संक्लेशभावतः । जाता स्वयंप्रभागमे मामा स्वं हि सुकेतुतः ॥२२॥ अत्र जन्मनि कृत्वान्ते तपो भूत्वाऽमरोत्तमः । च्युत्वा जैनं तपः कृत्वा निर्वाणसुखमाप्स्यति ॥२३॥
आकत्मिमवानेवं ज्ञात्वारमासन्ननिर्वृतिम् । भाननाम जिनाधीशं सत्यमामा प्रमोदिनी ॥२४॥ था ॥११॥ श्री पुष्पदन्त जिनेन्द्रके तीर्थमें धर्मका व्यच्छेद हो जानेसे जब भरतक्षेत्रकी भूमिमें जिनमार्गके ज्ञाता भव्य जीवोंका अभाव हो गया तब उस विषयोंसे पीड़ित ब्राह्मणने पृथिवीपर पापबन्धमें कारणभूत गाय, कन्या तथा सुवर्ण आदिसे दानकी प्रवृत्ति चलायी ॥१२-१३।। मूर्ख जनोंको मोहित कर वह राजपुरुषोंके आगे तक पहुँच गया अर्थात् क्रम-क्रमसे उसने राजा-प्रजा सभीको अपने चक्रमें फंसा लिया और पापाचारमें प्रवृत्त हो अन्तमें वह सातवें नरक गया ॥१४॥ वहाँसे निकलकर भी तिर्यंच और नारकियोंकी योनिमें परिभ्रमण करता रहा। तदनन्तर कदाचित् काकतालीयन्यायसे मनुष्य पर्यायको प्राप्त हुआ ॥१५॥ गन्धावती नदीके किनारे गन्धमादन पवंतपर बह वल्लरी नामक स्त्रीका स्वामी पर्वतक नामका भील हआ॥१६॥ कदाचित् उस पवंतपर श्रीधर और धर्म नामके दो चारणऋद्धिधारी मुनि आये। उनके दर्शन कर इसके परिणामोंमें कुछ शान्ति आयी जिससे मुनियोंने उससे उपवास कराया। अन्तमें वह धर्मपूर्वक मरणको प्राप्त
जया, पर्वतकी अलका नगरीमें महाबल नामक विद्याधरसे ज्योतिर्माला नामकी विद्याधरोमें शतबलीका भाई हरिवाहन नामका पुत्र हुआ ॥१७-१८॥ कदाचित् राजा महाबल, शतबली और हरिवाहन नामक दोनों पुत्रोंको राज्य-कार्यमें नियुक्त कर श्रीधर गुरुके पास दीक्षित हो गया और दीक्षाका मुख्य फल मोक्षसम्बन्धी सुख उसे प्राप्त हो गया ॥१९॥ किसी कारण शतबली और हरिवाहनमें विरोध पड़ गया जिससे बड़े भाई शतबलीने उसे निकाल दिया। निर्वासित हरिवाहन भगलीदेशके अम्बुदावर्त नामक पर्वतपर स्थित था ॥२०॥ उसी समय वहाँ श्रीधर्म और अनन्तवीर्य नामक दो चारणऋद्धिधारी मुनि आये। उनके दर्शन कर हरिवाहनने दीक्षा ले ली और अन्त में सल्लेखना धारण कर वह ऐशान स्वर्गको प्राप्त हुआ ॥२१॥ हरिवाहनके जीव देवने वहां देवोंके सखोंका उपभोग किया परन्त संक्लेशमय परिणाम होनेके कारण वहाँसे च्युत होकर राजा सुकेतुको रानी स्वयंप्रभाके गर्भ में तू सत्यभामा नामकी कन्या हुई ॥२२॥ इस जन्ममें तपकर तू अन्तमें उत्तम देव होगी और वहाँसे च्युत हो जिनेन्द्र प्रणीत तप कर मोक्ष सुखको प्राप्त होगी ॥२३॥
इस प्रकार अपने भव सुनकर तथा निकट कालमें हमें मोक्ष प्राप्त होनेवाला है यह जानकर सत्यभामाने हर्षित हो भगवान्को नमस्कार किया ॥२४॥ १. पुरोगमम् म.। २. चारणश्रवणो म., ङ,।
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