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हरिवंशपुराणे रुक्मिण्यापि ततः पृष्टः पूर्वजन्मानि सर्ववित् । अवोचदिति 'लोकेऽसौ प्रणिधानपरे स्थिते ॥२५।। अत्रैव भरतक्षेत्रे विषये मगधाभिधे । ब्राह्मणी सोमदेवस्य लक्ष्मीग्रामेऽग्रजन्मनः ॥२६॥ आसीलक्ष्मीमती नाम्ना लक्ष्मीरिव सुलक्षणा । रूपाभिमानतो मूढा पूज्यान्न प्रतिमन्यते ॥२७॥ धृतप्रसाधना वक्त्रं कदाचिञ्चित्तहारिणी । नेत्रहारिणि चन्द्राभे पश्यन्ती मणिदर्पणे ॥२८॥ समाधिगुप्तनामानं तपसातिकृशीकृतम् । साधं मिक्षागतं दृष्ट्वा निनिन्द विचिकित्सिता ॥२९॥ मुनेनिन्दातिपापेन सप्ताहाभ्यन्तरे च सा । क्लिन्नोदुम्बरकुष्ठेन प्रविश्याग्निमगान्मृतिम् ॥३०॥ सहार्ता सा खरी भूत्वा मृत्वा लवणभारतः । शूकरी मानदोषेण जाता राजगृहे पुरे ॥३१॥ वराकी मारिता मृत्वा गोष्टेऽजायत कुक्कुरी । गोष्ठागतेन सा दग्धा परुषेण दवाग्निना ॥३२॥ त्रिपदाख्यस्य मण्डूक्यां मण्डकग्रामवासिनः । मत्स्यबन्धस्य जाता सा दुहिता पूतिगन्धिका ॥३३।। मात्रा त्यक्ता स्वपापेन पितामद्या प्रवर्धिता । निष्कुटे वटवृक्षस्य जालेनाच्छादयन्मुनिम् ॥३४॥ बोधितावधिनेत्रेण प्रभाते करुणावता । धर्म समाधिगुप्तेन प्रोक्तपूर्वमवाग्रहीत् ॥३५।। पुरं सोपारकं याता तत्रार्याः समुपास्य सा । ययौ राजगृहं तामि: कुर्वाणाचाम्लवर्धनम् ॥३६॥
तदनन्तर रानी रुक्मिणीने भी अपने पूर्वभव पूछे सो समस्त पदार्थोंके ज्ञाता भगवान् नेमिनाथ, इस प्रकार कथन करने लगे। उस समय समस्त लोग सुननेके लिए एकाग्रचित्त होकर बैठे थे॥२५॥
इसी भरत क्षेत्रके मगध देशमें एक लक्ष्मी नामका ग्राम है। उसमें एक सोमदेव नामका ब्राह्मण रहता था। उसकी लक्ष्मीमती नामकी ब्राह्मणी थी जो कि लक्ष्मीके समान उत्तम लक्षणोंकी धारक थी और अपने रूपके अभिमानसे मूढ़ होकर पूज्य जनोंको भी कुछ नहीं समझती थी ॥२६-२७॥ चित्तको हरण करनेवाली वह लक्ष्मीमती. एक दिन आभषण धारण कर नेत्रों प्रिय तथा चन्द्रमाके समान आभावाले मणिमय दर्पणमें अपना मुख देख रही थी उसी समय तपसे अतिशय कृश समाधिगुप्त नामके मुनि भिक्षाके लिए आये। उन्हें देख ग्लानियुक्त हो उसने उनकी निन्दा को ।।२८-२९॥ मुनिनिन्दाके बहुत भारी पापसे वह सात दिनके भीतर ही उदुम्बर कुष्ठसे पीड़ित हो गयी और इतनी अधिक पीड़ित हुई कि वह अग्निमें प्रवेश कर मर गयो । ३० ।। आर्तध्यानके साथ मरकर वह गधी हुई। उसपर नमक लादा जाता था। सो उसके भारसे मरकर वह मान कषायके दोषसे राजगृह नगरमें शूकरी हुई ।।३१।। उस बेचारीको भी लोगोंने मार दिया जिससे मरकर वह गोष्ठ-गायोंके रहनेके स्थानमें कुत्ती हुई। एक दिन उस गोष्ठमें भयंकर दावाग्नि लग गयी जिससे वह कुत्ती उसी दावाग्निमें जल गयी ॥३२॥ और मरकर मण्डूकग्राममें रहनेवाले त्रिपद नामक धीवरकी मण्डूकी नामक स्त्रीसे पूतिगन्धिका नामक पुत्री हुई ॥३३।। अपने पापके उदयसे माताने उसे छोड़ दिया अर्थात् उसकी माता मर गयी जिससे दादोने उसका पालन-पोषण किया। एक दिन इसके घरके उपवनमें वही समाधिगुप्त मुनिराज विहार करते हुए आये और वटवृक्षके नीचे विराजमान हो गये। रात्रिके समय शीतकी अधिकता देख पूतिगन्धाने उन मुनिराजको जालसे ढक दिया ।। ३४ ॥ मुनिराज अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे इसलिए उन्हें उसकी दशा देख दया आ गयी। उन्होंने उसे समझाया और उसके पूर्व भव सुनाये जिससे उसने धर्म धारण कर लिया ॥ ३५ ॥ एक बार वह पूतिगन्धा सोपारक नगर गयी। वहाँ आर्यिकाओंकी उपासना कर वह उन्हींके साथ आचाम्ल नामका तप करती हुई
१. लोकेशो म. । २. सा ह्यातन ख., ङ, म.। ३. जाताथ म., घ. । ४. सोपानकम् क. । ५. समुपास्यया म.. क., ङ., ख.।
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