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हरिवंशपुराणे
सुराष्ट्रमरस्यलाटोरुसूरसेनपटचरान् । कुरुजाङ्गलपाञ्चालकुशाग्रसगधाजनान् ॥१०॥ अङ्गवनकलिङ्गादीन्नानाजनपदान् जिनः । विहरन् जिनधर्मस्थांश्चक्रे क्षत्रियपूर्वकान् ॥११॥ ततो मलयनामानं देशमागत्य स क्रमात् । सहस्राम्रवने तस्थौ पुरे भदिलपूर्वके ।।११२।। पूर्ववद्रचिते तत्र चतुर्भेदैः सुरासुरैः । समवस्थानभूभागे जिनोऽभाद् गणवेष्टितः ।।११३॥ तत्पुराधिपतिः पौण्डः पौरलोकसमन्वितः । सस्तुतिर्जितमानम्य समासीनः कृताञ्जलिः ।। ११४।। देवक्यास्तनया ये षट सुदृष्ट्यलकयोः स्थिताः । पुत्रप्रीतिं प्रकुर्वाणास्तेऽपि तत्रैव संगताः ।।१५५॥ प्रत्येक योषितस्तेषां द्वात्रिंशदगणना गुणः । रूपादिमिरपीन्द्रस्य जयन्त्यः शुचयः शचीम् ।।११।। अवतीर्य रथेभ्यस्ते षडभ्यः षडपि सोदराः। नत्वा नुत्या जिनं राज्ञा सहासीना महौजसः ।।११७॥ जिनः श्रावधर्म च सम्यग्दर्शनभूषितम् । यतिधर्म च कर्मघ्नं जगाद सदसे तदा ।।११।। ततो विदिततत्त्वार्थाः श्रत्वा धर्मामृतं जिनात् । जातसंपारनिर्वदा बन्धुभ्यो विनिवेद्य ते ॥११९|| जिनपादान्तिके दीक्षां मोक्षलक्ष्मीविधायिनीम् । भारः सहनिस्संगा: षडपि प्रतिपेदिरे ।।१२।। द्वादशाङ्गं श्रुतज्ञानं लब्धबीजादिबुद्धयः । अधिगम्य तपो घोरं चक्रुस्ते राजसूनवः ॥१२१॥ षष्टादयः सहामीषां धारणापरणा सह । योगास्त्रैकालिकाः साकं साकं शय्यासनकियाः ॥१२२॥ तेषां चरमदेहानां तपतां परमं तपः । देहानां परमा कान्तिः पूर्वतोऽपि विवर्धते ॥१२३॥ उपमानोपमेयत्वमन्योन्यस्य तपस्यमी । सबाह्याभ्यन्तरे प्रापुस्तीर्थ कृत्पदसेवकाः ॥१२४॥
सुराष्ट्र, मत्स्य, लाट, विशाल शूरसेन, पटच्चर, कुरुजांगल, पांचाल, कुशाग्र, मगध, अंजन, अंग, वंग तथा कलिंग आदि नाना देशोंमें विहार करते हुए भगवान्ने क्षत्रिय आदि वर्णोको जैनधर्ममें स्थित किया ।।११०-१११।।।
तदनन्तर विहार करते-करते भगवान् मलय नामक देशमें आये और उसके भद्रिलपुर नगरके सहस्राम्रवनमें विराजमान हो गये ॥११२। पहलेकी तरह चारों प्रकारके देवोंने वहांपर भी समवसरणकी रचना कर दो और उसमें गणधरोंसे वेष्टित भगवान् सुशोभित होने लगे ॥११३॥ उस नगरका राजा पौण्ड, नगरवासियोंके साथ समवसरणमें आया और हाथ जोड़ स्तुति करता हआ जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार कर मनुष्योक काठमें बठ गया ॥११४॥ देवकीक जो छह पूत्र सुदृष्टि सेठ और अलका सेठानीकी पुत्रप्रीतिको बढ़ाते हुए उनके यहाँ रहते थे वे भी समवसरणमें आये ॥११५।। उनमें से प्रत्येककी बत्तीस-बत्तीस स्त्रियाँ थीं जो अत्यन्त उज्ज्वल थीं और अपने रूप आदि गुणोंसे इन्द्रकी इन्द्राणीको भी जीतती थीं ॥११६॥ बहुत भारी तेजको धारण करनेवाले वे छह भाई अपने-अपने पृथक्-पृथक् छहों रथोंसे नीचे उतरकर समवसरण गये और जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर तथा उनकी स्तुति कर राजाके साथ मनुष्योंके कोठेमें बैठ गये ॥११७।। उस समय भगवान्ने सभामें स्थित लोगोंके लिए सम्यग्दर्शनसे सुशोभित श्रावकधर्म और कर्मोका नाश करनेवाले मुनिधर्मका उपदेश दिया ॥११८॥ तदनन्तर जिनेन्द्र भगवान्से धर्मरूप अमृतका श्रवण कर जिन्होंने तत्त्वके वास्तविक स्वरूपको जान लिया था ऐसे छहों भाई संसारसे विरक्त हो उठे और बन्धुजनोंको इसकी सूचना दे जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंके समीप निर्ग्रन्थ हो एक साथ मोक्ष लक्ष्मीको प्रदान करनेवाली दीक्षाको प्राप्त हो गये ॥११९-१२०॥ जिन्हें बीज-बुद्धि आदि ऋद्धियां प्राप्त हुई थीं ऐसे उन राजकुमारोंने द्वादशांग श्रुतज्ञानका अभ्यास कर घोर तप किया ॥१२१॥ इन छहों मुनियोंके बेला आदि उपवास, उनकी धारणाएँ, पारणाएँ, त्रैकालिक योग तथा शयन, आसन आदि क्रियाएँ साथ-साथ ही होती थीं ।।१२२।। उत्कृष्ट तप तपनेवाले उन चरमशरीरी मुनियोंके शरीरकी उत्कृष्ट कान्ति पहलेसे भी अधिक बढ़ गयी थी ॥१२३।। तोयंकर भगवान्के चरणोंकी सेवा करनेवाले ये छहों मुनि, बाह्याभ्यन्तर तपमें परस्पर एक-दूसरेके उपमानोपमेयको
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