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एकोनषष्टितमः सर्गः विहारामिमुखेऽगाग्राजिनेन्द्रेऽवतरिष्यति । स्वर्गाग्रादिव भूलोकं समुद्धतु मवोदधेः ॥१॥ गृह्यतां गृह्यतां काम्यं यथाकाममिहार्थिमिः । इति नित्यं धनेशेन घुष्यते कामघोषणा ॥२॥ कामदा कामवद्भूमिः कल्प्यते मणिकुट्टिमा । माङ्गल्यविजयोद्योग विभोः किं वा न कल्प्यते ॥३॥ महाभूतानि सर्वाणि मैतुर्भूतहितोद्यमे । सर्वभूतहितानि स्युस्तादृशी खलु सार्वता ॥४॥ प्रावृषेण्याम्बुधारेव वसुधारा वसुन्धराम् । दिवोऽन्वर्थाभिधानत्वं नयतीन्यपतस्पर्थि ॥५॥ प्रादुःष्यन्ति सुराः सद्यः प्रणामचलमौलयः । मासा व्याप्य दिशो मर्तुः प्रभाकारानुरागिणः ॥६॥ ये द्वे [यद् द्वे] पूर्वोत्तरे पङ्क्ती हेमाम्बुजसहस्रयोः । सहस्रपत्रं तत्पूतं भुवः कण्ठे गुणाकृती ॥७॥ पद्मरागमयं भास्वच्चित्ररत्नविचित्रितम् । प्रवृत्तप्रतिपत्रस्थपद्मामागमनोहरम् ॥८॥ सहस्राक्षसहस्राक्षिभृङ्गावलिनिषेवितम् । देवासुरनरालोकमधुपापानमण्डलम् ॥९॥ 'पद्मोद्भासि परं पुण्यं पद्मयानं प्रकाशते । सद्यो योजनविष्कम्भं तच्चतुर्भागकणिकम् ॥१०॥ महिमाने सुरेशाष्टमूर्तिस्पष्टगुणश्रियः । वसवोऽष्टौ पुरोधाय वासवं वरिवस्यया ॥११॥
अथानन्तर जिस प्रकार पहले संसार-समुद्रसे प्राणियोंको पार करनेके लिए भगवान् स्वर्गके अग्रभागसे पृथिवी लोकपर अवतीर्ण हुए थे, उसी प्रकार जब विहारके लिए सम्मुख हो गिरनार पर्वतके शिखरसे नीचे उतरनेके लिए उद्यत हुए तब कुबेरने निरन्तर यह मनचाही घोषणा शुरू कर दी कि जिस याचकको जिस वस्तुकी इच्छा हो वह यहाँ आकर उसे इच्छानुसार ले ॥१-२॥ उस समय कामधेनुके समान इच्छित पदार्थ प्रदान करनेवाली मणिमयी भूमि बनायी गयी । सो ठीक ही है क्योंकि भगवान्के मंगलमय विजयोद्योगके समय क्या नहीं किया जाता? अर्थात् सब कुछ किया जाता है ॥३॥ जब कि भगवान्का समस्त भूतों-प्राणियोंके हितके लिए उद्यम हो रहा था तब पृथिवी, जल, अग्नि और वायुरूप चार महाभूत भी समस्त भूतों-प्राणियों के हितकर हो गये सो ठीक ही है क्योंकि भगवान्की सर्वहितकारिता वैसी ही अनुपम थी ॥४॥ धनकी बड़ी मोटी धारा वर्षा ऋतुके मेघकी जलधाराके समान पृथिवीके वसुन्धरा नामको सार्थकता प्राप्त कराती हुई आकाशसे मार्गमें पड़ने लगी ॥५॥ प्रणाम करनेसे जिनके मस्तक चंचल हो रहे थे तथा जो भगवान्की प्रभा और आकारमें अनुराग रखते थे ऐसे देव अपनी कान्तिसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए शीघ्र ही प्रकट होने लगे ॥६॥ सर्व-प्रथम देवोंने एक ऐसे सहस्रदल पवित्र कमलकी रचना की जो पूर्व और उत्तरकी ओर स्वर्णमय हजार-हजार कमलोंकी दो पंक्तियां धारण करता था तथा वे पंक्तियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो पृथिवीरूपी स्त्रीके कण्ठमें पड़ी दो मालाएँ ही हों |७|| वह कमल पद्मराग मणियोंसे निर्मित था, देदीप्यमान नाना प्रकारके रत्नोंसे चित्रविचित्र था, प्रत्येक पत्रपर स्थित लक्ष्मीके भागसे मनोहर था, इन्द्रके हजार नेत्ररूपी भ्रमरावलीसे सेवित था, देव, धरणेन्द्र और मनुष्योंके नेत्ररूपी भ्रमरोंके लिए मानो मधुगोष्ठीका स्थान था, लक्ष्मीसे सुशोभित था, परम पुण्यरूप था, एक योजन विस्तृत था और उसके चौथाई भाग प्रमाण उसकी कर्णिका-डण्ठल थी॥८-१०॥ यह कमल पद्मयानके नामसे प्रसिद्ध था। सेवा द्वारा इन्द्रको आगे कर आठ वसु उस पद्मयानके आगे-आगे चल रहे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो इन्द्रके अणिमा, महिमा आदि आठ गुण ही मूर्तिधारी हो चल रहे हों। वे वसु यह कहते हुए १. पर्वताग्रात्-गिरनारशिखरतः । २. कर्तुं -म. घ. । ३. द्यते क.। ४. नयतीति पतत्यपि क. । ५. प्राङ्मख्यन्ति । ६. जयोद्भासि इत्यपि पाठः इति क. पुस्तकपार्वे लिखितम् ।
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