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एकोनषष्टितमः सर्गः जय प्रसीद मर्तुस्ते वेला लोकहितोद्यमे । जातायेत्यानमन्तीशं स हि विश्वसृजो विधिः ॥१२॥ ततः प्रक्रमते 'शम्भुरारोढु पन यानकम् । तरक्षणं भूयते भूम्या हृष्टसंभ्रान्तयापि च ॥१३॥ 'विजयी विहरत्येष विश्वेशो विश्वभूतये । धर्मचक्रपुरस्सारी त्रिलोकी तेन संपदा ॥१४॥ वर्धतां वर्धतो नित्यं निरीतिमरुतामिति । श्रयतेऽस्यम्बुदध्वानः प्रयाणपटहध्वनिः ॥१५॥ वीणानेणुमृदङ्गोरुमल्लरोशकाहलैः । सूर्यमङ्गलघोषोऽपि पयोधिमधिगर्जति ॥१६॥ संकथाक्रोशगीताट्टहासैः कलकलोत्तरैः । द्यावापृथिव्यौ प्राप्नोति 'प्रास्थानिकमहारवः ॥१७॥ वला गायन्ति किन्नयों नृत्यन्स्यप्सरसो दिवि । स्पृशन्यातोद्यमानर्ता गन्धर्वादय इत्यपि ॥१८॥ स्तुवन्ति मङ्गलस्तोत्रैर्जयमङ्गलपूर्वकैः । तत्र तत्र सतां वन्द्यं 'वन्दिनो नृसुरासुराः ॥१९॥ चित्रश्चित्तहरैर्दिव्यैर्मानुषैश्च समन्ततः । नृत्यसङ्गीतवादित्रैर्भूतलेऽपि प्रभूयते ॥१०॥ पालयन्ति ''सदिग्भागैर्लो कपालाः सभूतयः । मर्तृसेवा हि भृत्यानां स्वाधिकारेषु सुस्थितिः ॥२१॥ धावन्ति परितो देवाके चिद्भासुरदर्शनाः। हिंसया ज्यायसः सर्वानुत्सार्योत्सार्य दूरतः ॥२२॥ उदस्तैरत्नवलय-चिहस्तैः कृताञ्जलिः । भने प्रीतस्तदोदन्वान्वेलामा नमस्यति ॥२३॥
भगवान्को प्रणाम करते जा रहे थे कि हे भगवन् ! आप जयवन्त हों, प्रसन्न होइए, लोकहितके लिए उद्यम करनेका आज समय आया है। यथार्थ में वह सब भगवान्का माहात्म्य था ॥११-१२।। तदनन्तर उस पद्मयानपर भगवान् जिनेन्द्र आरूढ़ हुए थे और उस समय पृथिवी हर्षसे झूमती हुई-सी जान पड़ती थी ॥१३।। उस समय मेघोंके शब्दको पराजित करनेवाला देव-दुन्दुभियोंका यह प्रयाणकालिक शब्द सुनाई पड़ रहा था कि धर्मचक्रको आगे-आगे चलानेवाले ये जगत्के स्वामी विजयी भगवान् सब जीवोंके वैभवके लिए विहार कर रहे हैं। इनके इस विहारसे तीन लोकके जीव सम्पत्तिसे वृद्धिको प्राप्त हों अर्थात् सबकी सम्पदा वृद्धिंगत हो, और सब अतिवृष्टि आदि ईतियोंसे रहित हों ॥१४-१५|| उस समय वीणा, बांसुरी, मृदंग, विशाल झालर, शंख और काहलके शब्दसे युक्त तुरहीका मंगलमय शब्द भी समुद्रको गर्जनाको तिरस्कृत कर रहा था ।।१६।। प्रस्थान कालमें होनेवाला बहुत भारी शब्द, उत्तम कथा, चिल्लाहट, गीत, अट्टहास तथा अन्य कल-कल शब्दोंसे आकाश और पृथिवीके अन्तरालको व्याप्त कर रहा था ॥१७॥ आकाशमें किन्नरियाँ मनोहर गान गाती थीं, अप्सराएं नृत्य करती थीं, झूमते हुए गन्धर्व आदि देव तबला बजा रहे थे और नमस्कार करते हुए मनुष्य, सुर तथा असुर, सज्जनोंके द्वारा वन्दनीय भगवान्को नमस्कार करते हुए जय-जयको मंगलध्वनिपूर्वक मंगलमय स्तोत्रोंसे जहां-तहाँ उनकी स्तुति कर रहे थे ॥१८-१९|| पृथिवीतलपर भी सब ओर मनुष्य चित्तको हरनेवाले नाना प्रकारके दिव्य नृत्य, संगीत और वादित्रोंसे युक्त हो रहे थे ।।२०॥ विभूतियोंसे सहित लोकपाल समस्त दिग्भागोंके साथ सबकी रक्षा कर रहे थे । सो ठीक ही है क्योंकि अपने-अपने नियोगोंपर अच्छी तरह स्थित रहना ही भृत्योंकी स्वामि-सेवा है ।।२१।। देदीप्यमान दृष्टिके धारक कितने ही देव समस्त हिंसक जीवोंको दूर खदेड़कर चारों ओर दौड़ रहे थे ।।२२।। उस समय प्रसन्नतासे भरा समुद्र, रत्नरूप वलयोंसे सुशोभित ऊपर उठे हुए तरंगरूपी हाथोंसे अंजलि बांधकर वेलारूपो मस्तकसे १. क., ख., ग., घ., ङ., सर्वपुस्तकेषु 'सिन्धुरारोढुं' इति पाठो विद्यते, परं तस्यार्थसंगतिर्न प्रतिभाति । अतः मैसूरस्थित-प्राच्यविद्यासंशोधनमन्दिरस्थितपुस्तके समुपलब्धः 'शम्भुरारोढं' इति पाठः स्वीकृतः । अत्र शम्भुपदं जिनेन्द्रवाचकम् । २. द्विष्ट ग., ङ., इष्ट म., क.। 'हृष्टसंभ्रान्तयापि च' इति पाठोऽपि मैसूरस्थितपुस्तके समपलब्धः । ३. विजये क., ङ., म. । ४. विचरत्येष क. । ५. दिवःपथिव्यौ म., क., ड.। ६. प्रस्थानीकमहारवः म.। ७. फल्गु म.। ८. मानार्ता म., क., ङ,। ९. वन्दिता म.। १०. प्रभूतये म. । ११. सदिग्नागै -म. । १२. हिंसापापीयसः । हिसयान्वयि सर्वा क.।
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