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हरिवंशपुराणे इति मातृवचः श्रुत्वा भ्रातृस्नेहवशोऽपि सः । जरासन्धोपकारैस्तैः स्वामिकार्यधरोऽवदत् ॥१६॥ पितरौ भ्रातरो लोके बान्धवाश्च सुदुर्लमाः । यद्यस्त्येवं तथाप्यत्र प्रस्तावे समुपस्थिते ॥१७॥ स्वामिकाय परित्यज्य बन्धुकार्यमसांप्रतम् । अप्रशस्यं च हास्यं च संमुखे सांप्रतं रणे ॥९॥ एतावदत्र कार्य तु युद्धे भ्रातृवशादृते । योद्धव्यमन्ययोधैर्हि स्वामिकार्यकृता मया ॥९९॥ निवृत्ते युधि जीवामो यदि दैववशाद्वयम् । मविता 'निश्चितोऽस्माकमम्ब भ्रातृसमागमः ॥१०॥ प्रयाहि भ्रातृबन्धूनामेत देव निवेद्यताम् । इत्युक्त्वा पूजिता गत्वा कुन्ती सर्व तथाकरोत् ॥११॥ जरासन्धबले तत्र समभूमागवतिनी। चक्रव्यूहो द्विषां जित्यै रचितः कुशलैन पैः ॥१०२॥ चक्रस्यारसहस्रे हि राजैकैकः समास्थितः । तस्य राजसहस्रस्य करिणां तु शतं शतम् ॥३॥ एकैकस्य नरेन्द्रस्य द्विसहस्ररथाः स्थिताः । वाजिपञ्चसहस्राणि भटानां तानि षोडश ॥१०॥ अतश्चतुर्थमागेन संयुताः सपदि स्थिताः । नरेन्द्राः षट् सहस्राणि निविष्टास्तत्र नेमिषु ॥१०५॥ मध्यत्वं च समासाद्य सुस्थितो मागधः स्वयम् । राजपञ्चसहस्रः स श्रीमान् कर्णपुरस्सरेः॥१०६॥ तस्यैव मध्यभामे तु सैन्यं गान्धारसैन्धवम् । दुर्योधनसमेतं तु धार्तराष्ट्रशतं स्थितम् ॥१०॥ मध्ये च मध्यदेशास्तु स्थितास्तत्र नरेश्वराः । पूर्वभागे स्थितास्तस्य शेषा नृपगणास्तथा ॥१०॥ कुलमानधरा धीरा नरेशा बलशालिनः । पञ्चाशत्सकलव्यूहा नेमिसंधिष्ववस्थिताः ॥१०९॥ अन्तरान्तरसंस्थास्तु गुल्मैगुल्मैनरोत्तमैः । व्यूहस्य बाह्यतश्चापि नानान्यूहैर्नृपाः स्थिताः ॥१०॥
इस प्रकार माताके वचन सुनकर यद्यपि कणं भाइयोंके स्नेहसे विवश हो गया परन्तु जरासन्धने उसके प्रति जो उपकार किये थे उनसे स्वामीके कार्यका विचार करता हुआ बोला कि लोकमें माता-पिता, और भाई-बान्धव अत्यन्त दुर्लभ हैं यह बात यद्यपि ऐसी ही है, परन्तु इस अवसरके उपस्थित होनेपर स्वामीका कार्य छोड़ भाइयोंका कार्य करना अनुचित है, अप्रशस्त है और इस समय जबकि युद्ध सामने है हास्यका कारण भी है ।।९६-९८|| इस समय तो स्वामीका कार्य करता हुआ मैं इतना ही कर सकता हूँ कि युद्ध में भाइयोंको छोड़कर अन्य योद्धाओंके साथ युद्ध करूं ॥९९|| युद्ध समाप्त होनेपर यदि भाग्यवश हम लोग जीवित रहेंगे तो हे मां! हमारा भाइयोंके साथ समागम अवश्य ही होगा। तू जा और भाई-बान्धवोंको इतनी खबर दे दे। इस प्रकार कहकर कर्णने माता कुन्तीकी पूजा की और कुन्तीने जाकर उसके कहे अनुसार सब कार्य किया ॥१००-१०१।। उधर समान भूभागमें वर्तमान राजा जरासन्धकी सेनामें कुशल राजाओंने शत्रुओंको जीतने के लिए चक्रव्यूहकी रचना की ॥१०२।। उस चक्रव्यूहमें जो चक्राकार रचना की गयी थी उसके एक हजार आरे थे, एक-एक आरेमें एक-एक राजा स्थित था, एक-एक राजाके सौ-सौ हाथी थे, दो-दो हजार रथ थे, पांच-पांच हजार घोड़े थे और सोलह-सोलह हजार पैदल सैनिक थे ।।१०३-१०४॥ चक्रकी धाराके पास छह हजार राजा स्थित थे और उन राजाओंके हाथी, घोड़ा आदिका परिमाण पूर्वोक्त परिमाणसे चौथाई भाग प्रमाण था ॥१०५|| कर्ण आदि पांच हजार राजाओंसे सुशोभित राजा जरासन्ध स्वयं उस चक्रके मध्यभागमें जाकर स्थित था॥१०६।। गान्धार और सिन्ध देशकी सेना, दुर्योधनसे सहित सौ कौरव, और मध्यदेशके राजा भी उसी चक्रके मध्यभागमें स्थित थे ॥१०७-१०८।। कुलके मानको धारण करनेवाले धीर, वीर, पराक्रमी पचास राजा अपनी-अपनी सेनाके साथ चक्रधाराको सन्धियोंपर अवस्थित थे॥१०९|| आरोंके बीच-बीचके स्थान अपनी-अपनी विशिष्ट सेनाओंसे युक्त राजाओंसे सहित थे। इनके सिवाय व्यूहके १. अयुक्तम् । २. निश्चयोऽस्माक-म.। ३. जयनं जितिः तस्यै । नित्यै म.। ४. नेमिसन्धिष्विव स्थिताः म., ग. । ५. एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः । त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञः पत्तिरित्यभिधीयते ॥ तिसभिः पत्तिभिः सेनामुखं, त्रिभिः सेनामुखैर्गुल्मः, गुल्मत्रयेण गणः । इत्यमरटीकायाम् ।
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