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हरिवंशपुराणे
पुर्यास्तेऽमरकङ्काया बहिरुद्यानवर्तिनः । कृष्णाद्याः पद्मनाभाय तन्नियुक्तेर्निवेदिताः ॥४१॥ चतुरङ्गबलं तस्य पुर्या निर्यातमुद्धतम् । भ्रातृभिः पञ्चभिर्युद्धे भग्नं नगरमाविशत् ||४२ || नृपः स नगरद्वारं पिधाय सनयः स्थितः । अलध्ये पाण्डुपुत्राणां ततश्चक्री स्वयं रुषा ।। ४३ ।। बिभेद पादनिर्घातैर्निर्घातैरिव नागरीम् । बहिरन्तर्भुवं विश्वां भ्रश्यत्प्राकारगोपुराम् ||४४|| पतत्प्रासादशा लौघैर्भ्राम्यन्मत्तेमवाजिनि । विप्रलाप महारावे पुरे जाते जनाकुले ||४५ || सपौरान्तःपुरो राजा निरुपायो भयाकुलः । प्रविष्टः शरणं द्रोही द्रौपदीं द्रुतमानतः ॥ ४६ ॥ क्षम्यतां क्षम्यतां सौम्ये ! देवि ! देवतया समे । दाप्यतामभयं मेऽद्य सवाच्यस्य पतिव्रते ! ॥ ४७॥ तं सा कृपावती प्राह द्रौपदी शरणागतम् । गच्छ भ्रकुंसवेषेण शरणं चक्रवर्तिनः ॥ ४८ ॥ कृतदोषेष्वपि प्रायः प्रणतेषु नरोत्तमाः । सकृपाः स्युर्विशेषेण भीरुवेषेषु भीरुषु ॥ ४९ ॥ सस्त्रीकः स्त्रीकृताकारः श्रुत्वा पार्थाङ्गनाप्रणीः । प्रविष्टः शरणं गत्वा विष्टरश्वसं नृपः ॥५०॥ दस्वासावभयं तस्य शरणागतभीहरः । विससर्ज निजं स्थानं स्थाननामादिभेदिनम् ॥५१॥ "कृष्णा कृष्णपदं नत्वा क्षेमदानपुरस्सरम् । प्रायुक्त विनयं योग्यं पञ्चस्वपि यथाक्रमम् ॥५२॥ आश्लिष्य दयितां पार्थो विरहग्यथितां ततः । स्वयं प्रस्वेदिहस्ताभ्यां तद्वेणीमुदमोचयत् ॥ ५३ ॥
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गया और इस तरह वे शीघ्र ही समुद्रका उल्लंघन कर धातकीखण्ड द्वीपके भरत क्षेत्रमें जा पहुँचे ||४०|| वहाँ जाकर ये अमरकंकापुरीके उद्यानमें ठहर गये और राजा पद्मनाभ द्वारा नियुक्त पुरुषोंने उसे खबर दी कि कृष्ण आदि आ पहुँचे हैं ॥ ४१ ॥ खबर पाते ही उसकी उद्धत चतुरंग सेना नगरीसे बाहर निकली परन्तु पाँचों पाण्डवोंने युद्ध में उसे इतना मारा कि वह भागकर नगर में जा घुसी ||४२ ॥ राजा पद्मनाभ बड़ा नीतिज्ञ था इसलिए वह नगरका द्वार बन्द कर भीतर रह गया । नगरका द्वार लाँघना जब पाण्डवोंके वशकी बात नहीं रही तब श्रीकृष्ण ने स्वयं पैरके आघातोंसे द्वारको तोड़ना शुरू किया। उनके पैरके आघात क्या थे मानो वज्रके प्रहार थे। उन्होंने नगरकी समस्त बाह्य तथा आभ्यन्तर भूमिको तहस-नहस कर डाला । प्राकार और गोपुर टूटकर गिर गये। बड़े-बड़े महल और शालाओंके समूह गिरने लगे जिससे मदोन्मत्त हाथी और घोड़े इधर-उधर दौड़ने लगे, नगरमें सर्वत्र हाहाकारका महान् शब्द गूंजने लगा और मनुष्य घबड़ाकर बाहर निकल आये ||४३ - ४५ ॥ जब द्रोही राजा पद्मनाभ निरुपाय हो गया तब वह भयसे व्याकुल हो नगरवासियों और अन्तःपुरकी स्त्रियों को साथ ले शीघ्र ही द्रौपदीकी शरण में पहुँचा और नम्रीभूत होकर कहने लगा कि हे देवि ! तू देवताके समान है, सौम्य है, पतिव्रता है, मुझ पापीको क्षमा करो, क्षमा करो और अभय दान दिलाओ ||४६-४७॥ द्रौपदी परम दयालु थी इसलिए उसने शरण में आये हुए पद्मनाभसे कहा कि तू स्त्रीका वेष धारण कर चक्रवर्ती कृष्णकी शरण में जा । क्योंकि उत्तम मनुष्य नमस्कार करनेवाले अपराधी जनों पर भी प्रायः दया सहित होते हैं, फिर जो भीरु हैं अथवा भीरुजनोंका वेष धारण करते हैं उनपर तो वे और भी अधिक दया करते हैं ।।४८-४९ ।। यह सुनकर राजा पद्मनाभने स्त्रीका वेष धारण कर लिया और स्त्रियों को साथ ले तथा द्रौपदीको आगे कर वह श्रीकृष्णकी शरण में जा पहुँचा ॥५०॥ श्रीकृष्ण शरणागतोंका भय हस्नेवाले थे इसलिए उन्होंने उसे अभय दान देकर अपने स्थानपर वापस कर दिया, केवल उसके स्थान तथा नाम आदिमें परिवर्तन कर दिया ॥ ५१ ॥ द्रौपदीने कुशल प्रश्नपूर्वक श्रीकृष्णके चरणों में नमस्कार किया और पांचों पाण्डवोंके साथ यथायोग्य विनयका व्यवहार किया ॥५२॥ तदनन्तर अर्जुनने विरहसे पीड़ित वल्लभाका आलिंगन कर
१. नागरम् म. । २. - वेदिनम् क। ३. द्रोपदी ।
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