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षट्पनाशः सर्गः नानारत्नौघरोचिर्जनितसुरधनुर्हेमसिंहासनेन
भाषाभेदस्फुरन्स्या स्फुरणविरहितस्वाधरोद्भाषया च ॥१७॥ . अष्टामिः प्रातिहायरतिशमितपरैः स्वैविशेषैरशेषैः
कर्मापायस्वमावत्रिदिवपतिमवैस्तैश्चतुस्त्रिंशता च । त्रैलोक्योद्धारणाय प्रकृतितरतिर्नेमिनाथो जगत्या
द्वाविंशो हारिवंशो गुणगणदिनकृतीर्थकृत्प्रादुरासीत् ॥११॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यस्य कृती भगवन्नेमिनाथ
केवलज्ञानवर्णनो नाम षटपञ्चाशः सर्गः ॥५६॥
इन्द्रधनुषको उत्पन्न करनेवाला स्वर्ण-सिंहासन आविर्भूत हो गया और नाना भाषाओंके भेदसे युक्त एवं ओठोंके स्फुरणसे रहित दिव्यध्वनि खिरने लगी। इस प्रकार पूर्वोक्त आठ प्रातिहार्यों, दूसरोंको अत्यन्त शान्त करनेवाली अपनी समस्त विशेषताओं और केवलज्ञान-सम्बन्धी, जन्मसम्बन्धी तथा देवकृत चौंतीस अतिशयोंसे विभूषित, तीन लोकके उद्धारके लिए स्वाभाविक धैर्यके धारक और अनेक गुणोंके समूहको प्रकट करनेके लिए सूर्यके समान, हरिवंशके शिरोमणि बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ भगवान् पृथिवीपर प्रकट हुए ॥११६-११८॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें भगवान् नेमिनाथके केवलज्ञानकी उत्पत्तिका वर्णन करनेवाला छप्पनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥५६॥
१. प्रकृत-म.। २. हरिवंशे भवो हारिवंशः। ३. गुणगुणबृहत्तात् म., घ.। जिनगुणगुणभृत्त-क.
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