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अष्टपञ्चाशः सर्गः
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कषायाः क्रोधमानौ च मायालोमौ च घातकाः । सम्यक्त्वस्य सवृत्तस्य तत्रानन्तानुबन्धिनः ॥ २३८ ॥ यदीयोदयतो ह्यात्मा प्रत्याख्यातुं न शक्नुयात् । हिंसादीन्युदयांस्ते स्युरप्रत्याख्यानसंज्ञकाः ४ २३ ॥ यदीयोदयतो जीवः संयमं न प्रपद्यते । ते क्रोधमानमायायाः प्रत्याख्यान विनिःश्रुताः ॥२४१ ॥ यदीयोदयतो वृत्तं यथाख्यातं न जायते । ज्वलन्तः संयमेनामा ख्याताः 'संज्वलनास्तु ते ॥ २४५॥ नारकं नरकोद्भूतं तैर्यग्योनं च मानुषम् । दैवं चायुर्भवेत्तेषु चतुर्विधमितीरितम् ॥ २४२ ॥ यदीयोदयतो जन्तुर्भवान्तरमियति सा । गतिश्चतुर्विधा देवनरकादिविभेदतः ॥ २४३ ॥ आत्मनो नरकादिश्वं यन्निमित्तं प्रजायते । तत्स्यान्नरकगत्यादि गतिनाम चतुर्विधम् ॥ २४४॥ गतिकीकृतार्था सा साम्येनाभ्यभिचारिणा । जातिस्तस्या निमित्तं तु जातिनामात्र पञ्चधा ॥२४५॥ एकेन्द्रियादिकां जातिमुदयाद्यस्य जन्तवः । प्रयान्त्येन्द्रियाद्येतज्जातिनामाभिधीयते ॥ २४६ ॥ शरीरपञ्चकस्यास्य निवृत्तिर्यस्य चोदयात् । औदारिकशरीरादि नाम पञ्चविधं तु तत् ॥ २४५॥ अङ्गोपाङ्गविवेकः स्याच्छरीराणां यतस्तु तत् । त्रिधाङ्गोपाङ्गनामाख्य मौदारिकपुरस्सरम् || २४८ ॥ चक्षुरादीन्द्रियस्थानप्रमाणे जात्यपेक्षया । ये निर्मापयतस्ते स्तो नाम्ना निर्माणनामनी ॥ २४९ ॥
कषायके मूल में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेदसे चार भेद हैं। फिर प्रत्येकके क्रोध, मान, माया और लोभकी अपेक्षा चार-चार भेद हैं । इस प्रकार कषाय कुल सोलह भेद हैं । इनमें से अनन्तानुबन्धी सम्बन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यग्दर्शन तथा स्वरूपाचरण चारित्रके घातक हैं ||२३८ || जिसके उदयसे आत्मा हिंसादि रूप परिणतियोंका त्याग करनेमें समर्थ न हो सके वे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ||२३९ || जिनके उदयसे जीव संयमको प्राप्त न हो सके वे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ॥ २४०॥ और जिनके उदयसे यथाख्यात चारित्र प्रकट नहीं होता तथा जो संयम के साथ विद्यमान रहते हैं वे संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ हैं ||२४१||
नारक, तैर्यग्योन, मानुष और देवके भेदसे आयु कर्म चार प्रकारका कहा गया है । आयु कर्मके उदयसे यह जीव नारकादि पर्यायोंमें उत्पन्न होता है
|| २४२ ||
जिसके उदयसे जीव भवान्तरको प्राप्त होता है वह गति नाम कर्म है । देव तथा नारकादिके भेदसे गति नाम कमं चार प्रकारका है || २४३|| जिसके निमित्तसे आत्मामें नरकादि पर्याय प्रकट होती है वह चार प्रकारका नरकादि नाम कर्म है || २४४ || उन नरकादि गतियों में जो अविरोधी समान धर्मसे आत्माको एक रूप करनेवाली अवस्था है उसे जाति कहते हैं । उस जातिका जो निमित्त है वह जाति नाम कर्म कहा जाता है इसके एकेन्द्रिय जाति आदि पांच भेद हैं || २४५|| जिसके उदयसे जोव एकेन्द्रियादि जातिको प्राप्त होते हैं वह एकेन्द्रियादि जाति नाम कर्म कहलाता है ||२४६॥
जिसके उदयसे औदारिक आदि पांच शरीरोंकी रचना होती है वह औदारिक शरीरादि पाँच प्रकारका शरीर नाम कम है || २४७ || जिसके उदयसे शरीरोंमें अंगोपांगका - विवेक होता है वह औदारिक शरीरांगोपांगको आदि लेकर तीन प्रकारका अंगोपांग नाम कर्म है || २४८ || जो जातिको अपेक्षा चक्षु आदि इन्द्रियोंके स्थान और प्रमाणका निर्माण करते हैं वे
१. यस्यान्तो नास्ति सोऽनन्तः संसारस्तस्य कारणत्वात् मिथ्यात्वमपि अनन्तं तदनुबध्नन्तीत्यनन्तानुबन्धिनः । २. ईषत्प्रत्याख्यानमप्रत्याख्यानं तस्यावरणं यैस्तेऽप्रत्याख्नानावरणाः । ३ प्रत्याख्यानं चारित्रं तस्यावरणं यैस्ते प्रत्याख्यानावरणाः । ४. नामैकदेशेन सर्वदेशग्रहणात् सम् पदेन संयमस्य ग्रहणं तेन सह ज्वलतीति संज्वलनम् । ५. एकीगतार्था म. । ६. यदपेक्षया म, ङ.
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