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हरिवंशपुराणे
श्रमादिप्रमवात्मानं प्रचला प्रचलयत्यलम् । सा पुन: पुनरावृत्ता प्रचलाप्रचलाभिधा ॥२२८॥ स्त्यानगृद्धिर्ययास्त्याने स्वप्ने गृध्यति दीप्यते । आस्मा यदुदयाद्रौद्रं बहुकर्म करोति सा ॥२२९॥ शारीरं मानसं सौख्यं दुःखं चोदयते ययोः । स्यातां ते वेदनीये स्तः सातासाते यथाकमम् ॥२३॥ सम्यक्त्वं चापि मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वमित्यदः । दृश्यं दर्शनमोहस्य ह्यत्तरं प्रकृतित्रिकम् ॥२३॥ शुभात्मपरिणामेन निरुद्धस्वरसे स्थिते । मिथ्यात्वे श्रद्दधानस्य सम्यक्त्वप्रकृतिर्भवेत् ॥२३२॥ मिथ्यात्वे त्वर्धसंशुद्ध कोद्रवे मदशक्तिवत् । शुद्धाशुद्धात्मको भावः सम्यग्मिथ्यात्वमुच्यते ॥२३३॥ द्वेधा चारित्रमोहस्तु नोकषायकषायतः । नवधा नोकषायोऽत्र कषायाः षोडशोदितः ॥२३४॥ उदयाद्यस्य हासाविर्भावो हास्यं तदुत्सुकः । यस्योदयादतिः सा स्यादरतिस्त द्विपर्ययः ॥२३५॥ शोचनं यद्विपाकात्स शोक उद्वेग कृद्भयम् । स्वदोषगोपनं यस्य जुगुप्सा सा जुगुप्सिता ॥२३॥ भावांस्त्रैणान्यतो याति स स्त्रीवेदोऽतिगर्हितः । पुन्नपुंसकवेदी स्तः पौंस्नान्नापुंसकात् यतः ॥२३७॥
है ।।२२७|| थकावट आदिसे उत्पन्न होनेवाली जो निद्रा जीवको बैठे-बैठे ही अत्यधिक चपल कर देवे वह प्रचला है। प्रचला जब बार-बार अधिक रूपमें आती है तब प्रचलाप्रचला कहलाने लगती है ।।२२८|| जिसके द्वारा आत्मा स्त्यान अर्थात् सोते समय गृद्धता करने लगे-किसी कर्ममें सचेष्ट हो जावे और जिसके उदयसे यह जीव अत्यधिक कठिन काम कर ले वह स्त्यानगृद्धि है। यह पाँच प्रकारको निद्रा, दर्शनावरण कर्मके उदयसे आती है और इन निद्राओंके माध्यमसे दर्शनावरण कर्म आत्माके दर्शनगुणको घातता है ।।२२२|| वेदनीय कर्मके दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय। जिनके उदयसे शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं वे यथाक्रमसे सातावेदनीय और असातवेदनीय कहलाते हैं ॥२३०।।
मोहनीय कर्मके मूलमें दो भेद हैं-१. दर्शनमोहनीय, २. चारित्रमोहनीय। इनमें से दर्शनमोहनीयको सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्व ये तीन उत्तर प्रकृतियाँ हैं ।।२३१|| आत्माके शुभ परिणामोंसे जब मिथ्यात्वप्रकृतिका स्वरस-फल देनेको शक्ति रुक जाती है तब श्रद्धान करनेवाले जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होता है। इस प्रकृतिके उदयसे आत्माका श्रद्धानगुण तिरोहित नहीं होता किन्तु चल, मल, अगाढ़ दोषोंसे दूषित हो जाता है ।।२३२।। मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे श्रद्धान गुण विकृत हो जाता है और अतत्त्व श्रद्धानरूपी परिणति हो जाती है। अर्ध शुद्ध कोदोंकी मदशक्तिके समान मिथ्यात्व प्रकृतिके अर्द्ध शुद्ध होनेपर जीवका जो शुद्ध और अशुद्ध भाव एक साथ प्रकट होता है वह सम्यमिथ्यात्व कहलाता है। सम्यमिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे जीवके परिणाम दही और गुड़के मिश्रित स्वादके समान श्रद्धान और अश्रद्धान रूप होते हैं ॥२३३॥
नोकषाय और कषायके भेदसे चारित्रमोहके दो भेद हैं। इनमें नोकषायके नौ और कषायके सोलह भेद कहे गये हैं ॥२३४।। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद ये नौ नोकषायके भेद हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं-जिसके उदयसे उत्सुक होता हुआ हास्य प्रकट हो वह हास्यकम है। जिसके उदयसे रति-प्रीति उत्पन्न हो वह रति कर्म है। जिसके उदयसे अरति-अप्रीति उत्पन्न हो वह अरति है। जिसके उदयसे शोक हो वह शोक है । जो उद्वेग-भय उत्पन्न करनेवाला है वह भय है। जिसके उदयसे अपने दोष छिपाने में प्रवृत्ति हो वह जुगुप्सा है। जिसके उदयसे यह जीव स्त्रीके भावको अर्थात् पुरुषसे रमने की इच्छाको प्राप्त होता है वह स्त्रीवेद है। जिसके उदयसे पुरुषके भावको अर्थात् स्त्रीसे रमनेकी इच्छाको प्राप्त होता है वह पुरुषवेद है। और जिसके उदयसे नपुंसकके भावको-अर्थात् स्त्री-पुरुष दोनोंसे रमनेकी इच्छाको प्राप्त होता है वह नपुंसक वेद है ।।२३५-२३७||
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