________________
८२
अष्टपञ्चाशः सर्गः हेतुस्तीर्थकरत्वस्य सत्तीर्थकरनाम तत् । नाम्नः प्रकृतिभेदाविनवतिस्तुत्तरोत्तराः ॥२८॥ गोत्रमुच्चैश्च नीचैश्च तत्र यस्योदयास्कुले । पूजिते जन्म तत्तच्चैर्नीचर्नीचकुलेषु तत् ॥१०॥ दीयते दातुकामैर्न लन्धुकामैर्न लभ्यते । यदुदयात्प्रणीतौ तौ दानलाभान्तरायको ॥२८०॥ मोक्नुकामोऽपि नो भुङ्क्ते नोपभुने तथेच्छुकः । यदेतावन्तरायौ तौ ज्ञेयौ भोगोपमोगयोः ॥२८॥ तथोत्सहितुकामो यो यतो नोस्सहते स हि । वीर्यान्तराय एषोऽसौ बन्धः प्रकृतिलक्षणः ॥२८॥ स्थितिबन्धविकल्पस्तु जवन्योत्कृष्टभेदवान् । अष्टानां कर्मणामेषां द्विविधोऽपि निरूप्यते ॥२३॥ 'ज्ञानदर्शनसंवृत्योर्वेदनीयान्तराययोः । सागरोपमकोटीना कोव्यस्त्रिंशस्परा स्थितिः ॥२४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य विंशतिर्नामगोग्रयोः । संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्येयं ज्ञेया पर्याप्तकस्य तु ॥२८५॥ आयुषस्तु त्रयस्त्रिशत्सागरोपमिका परा । स्थितिः सा वेदनीयस्य मुहर्ता द्वादशावरा ॥२६॥ साष्टावेव मुहर्ता स्याजघन्या नामगोत्रयोः । पञ्चानामपि शेषाणां स्थितिरन्तरमहर्तिका ॥२७॥
यशःकीर्ति नामकर्म कहलाता है और जो इससे विपरीत अपयशका कारण है वह अपयशस्कीर्ति नामकर्म है ।२७७॥ और जो तीर्थंकर पर्यायका कारण है वह तीर्थंकर नामकर्म है यह सातिशय पुण्य प्रकृति है । इस प्रकार नामकर्मकी तिरानबे उत्तर प्रकृतियाँ हैं ॥२७८||
गोत्रकर्मके दो भेद हैं-१. उच्च गोत्र और २, नीच गोत्र । जिसके उदयसे लोकपूज्य कुलमें जन्म होता है उसे उच्च गोत्र कहते हैं और जिसके उदयसे नीच कुलोंमें जन्म होता है वह नीच गोत्र है ॥२७९॥
___ अन्तराय कर्मके पांच भेद हैं-१. दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय और ५. वीर्यान्तराय। जिसके उदयसे जीव दान करनेकी इच्छा करते हुए भी दान न कर सके वह दानान्तराय है। जिसके उदयसे लाभकी इच्छा रखते हुए भी लाभ प्राप्त न कर सके वह लाभान्तराय है ।।२८०॥ जिसके उदयसे जीव, भोगकी इच्छा रखता हुआ भी भोग नहीं सकता वह भोगान्तराय है। जिसके उदयसे उपभोगकी इच्छा रखता हया भी उपभोग नहीं कर सकता वह उपभोगान्तराय है ।।२८१।। और जिसके उदयसे कार्यों में उत्साहित होता हुआ भी उत्साह प्रकट नहीं कर सकता वह अन्तराय नामका कर्म है। इस प्रकार यह प्रकृतिबन्धका निरूपण किया ।।२८२।। अब स्थितिबन्धका निरूपण करते हैं। आठों कर्मोंका स्थितिबन्ध, जघन्य और उत्कृष्टको अपेक्षासे दो प्रकारका कहा जाता है ।।२८३॥
ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोको उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ो सागर है ॥२८४॥ मोहनीय कर्मको सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है और नाम तथा गोत्र कर्मकी बीस कोड़ाकोड़ो सागर है। यह उत्कृष्ट स्थिति संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवके ही बंधती है ।।२८५॥
आयुकमंको उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर है। वेदनीय कमको जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है। नाम और गोत्रको आठ मुहूर्त है तथा शेष पाँच कर्मोकी अन्तर्मुहूतं है ।।२८६-२८७।।
१. तदुच्चैः म. । २. आदितस्तिसुणामन्तरायस्य च त्रयस्त्रिशत्सागरोपमा कोटीकोट्यः परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ विशतिर्नामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादश- . महर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ नामगोत्रयोरष्टो ॥१९॥ शेषाणामन्तर्मुहर्ता ॥२०॥-त. सू. अ. ८। तीसं कोडाकोडी तिघादितदियेसु वीसणामदुगे । सत्तरि मोहे सुद्धं उवही आउस्स तेतीसं ॥१२७।। वारस य वेयणीये णामे गोदे य अटु य मुहुत्ता । गो. क. ।। भिण्णमुहुतं तु ठिदी जहण्णयं सेसपंचण्हं ॥१३९।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org