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अष्टपञ्चाशः सर्गः
६७३ सुवाग्गुप्तिमनोगुप्ती स्वकाले वीक्ष्य भोजनम् । द्वे चेर्यादाननिक्षेपसमिती प्राग्वतस्य ताः ॥११॥ स्वक्रोधलोममीरुत्वहास्यहानोद्वभाषणाः । द्वितीयस्य व्रतस्यैता भाषिताः पञ्च भावनाः ॥११९॥ शून्यान्यमोचितागारवासान्यानुपरोधिताः । भैक्ष्यशुद्धयविसंवादौ तृतीयस्य व्रतस्य ताः ॥१२०॥ स्त्रीरागकथाश्रत्या रम्याङ्गेक्षाङ्गसंस्कृतः । रसपूर्वरतस्मृत्योस्त्यागस्तुर्यव्रतस्य ताः ॥१२१॥ 'इष्टानिष्टेन्द्रियार्थेषु रागद्वेषविमुक्तयः । यथास्वं पञ्च विज्ञेयाः पञ्चमवतमावनाः ॥१२२॥ "हिंसादिष्विह चामुष्मिन्नपायावद्यदर्शमम् । व्रतस्थैर्यार्थमेवात्र मावनीयं मनीषिभिः ॥१२३॥ दुःखमेवेति चाभेदादसवेद्यादिहेतवः । नित्यं हिंसादयो दोषा भावनीयाः मनीषिभिः ॥१२४॥ 'मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यं च यथाक्रमम् । सत्त्वे गुणाधिक क्लिष्टे ह्यविनेये च भाष्यते ॥१२५॥
स्वसंवेगविरागाथं नित्यं संसारभीरुभिः। जगत्कायस्वभावौ च मावनीयौ मनस्विमिः ॥१२६॥ "इन्द्रियाद्या दश प्राणाः प्राणिभ्योऽत्र प्रमादिना । यथासंभवमेषां हि हिंसा तु व्यपरोपणम् ॥१२७॥
१२२॥
सम्यक् वचनगुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, भोजनके समय देखकर भोजन करना ( आलोकितपान भोजन ), ईर्या-समिति और आदाननिक्षेपण समिति ये पांच अहिंसा व्रतकी भावनाएं हैं ॥११८।। अपने क्रोध, लोभ, भय और हास्यका त्याग करना तथा प्रशस्त वचन बोलना ( अनुवीचिभाषण) ये पांच सत्यव्रतको भावनाएं हैं ।।११९|| शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये पांच अचौर्य व्रतकी भावनाएं हैं ॥१२०॥ स्त्री-रागकथा श्रवण त्याग, अर्थात् स्त्रियोंमें राग बढानेवाली कथाओंके पुननेका त्याग करना, उनके मनोहर अंगोंके देखनेका त्याग करता, शरीरकी सजावटका त्याग करना, गरिष्ठ रसका त्याग करना एवं पूर्व कालमें भोगे हुए रतिके स्मरणका त्याग करना ये पाँच ब्रह्मचर्य व्रतको भावनाएँ हैं ॥१२१॥ पंच इन्द्रियोंके इष्टअनिष्ट विषयामे यथायोग्य राग-द्वषका त्याग करना ये पाच अपरिग्रह व्रतको भावनाएं हैं ||१२ बद्धिमान मनष्योंको व्रतोंकी स्थिरताके लिए यह चिन्तवन भी करना चाहिए कि हिंसादि पाप करनेसे इस लोक तथा परलोकमें नाना प्रकारके कष्ट और पापबन्ध होता है ॥१२३॥ अथवा नीतिके जानकार पुरुषोंको निरन्तर ऐसी भावना करनी चाहिए कि ये हिंसा आदि दोष दुःख रूप ही हैं। यद्यपि ये दुःखके कारण हैं दुःखरूप नहीं परन्तु कारण और कार्यमें अभेद विवक्षासे ऐसा चिन्तवन करना चाहिए ।।१२४|| मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य ये चार भावनाएं क्रमसे प्राणी-मात्र, गुणाधिक, दुःखी और अविनेय जीवोंमें करना चाहिए। भावार्थ-किसी जीवको दुःख न हो ऐमा विचार करना मैत्री भावना है। अपनेसे अधिक गुणी मनुष्योंको देखकर हर्ष प्रकट करना मोद भावना है। दुःखी मनुष्योंको देखकर हृदयमें दयाभाव उत्पन्न होना करुणा भावना है और अविनेयमिथ्यादृष्टि जीवोंमें मध्यस्थ भाव रखना माध्यस्थ्य भावना है ।।१२५।। अपनी आत्मामें संवेग और वैराग्य उत्पन्न करने के लिए संसारसे भयभीत रहनेवाले विचारक मनुष्योंको सदा संसार और शरीरके स्वभावका चिन्तवन करना चाहिए ॥१२६।।
इस संसारमें प्राणियोंके लिए यथासम्भव इन्द्रियादि दश प्राण प्राप्त हैं। प्रमादी बनकर १. स्ववाग म. । २. वाङमनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥४॥ ३. क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचीभाषणं च पञ्च ॥५॥ ४. शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्षशुद्धिसधर्माविसंवादाः पञ्च ॥६॥ ५. स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥७॥ ६. मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥८॥ ७. हिसादिविहामुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥९॥ ८. दुःखमेव वा ॥१०॥ ९. मैत्रोप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु ॥११॥ १०. स्वसंवेगादिरागार्थ म., जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥१२॥ ११. प्रमत्तयोगात प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥
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