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अष्टपञ्चाशः सर्गः
यद्रागद्वेषमोहादेः परपीडाकरादिह । अनृताद्विरतिर्यत्र तद्वितीयमणुव्रतम् ॥ १३९ ॥ परद्रव्यस्य नष्टादेर्महतोऽल्पस्य चापि यत् । अदत्तत्वेऽस्य मादाने तत्तृतीयमणुव्रतम् ॥ १४०॥ दारेषु परकीयेषु परित्यक्तरतिस्तु यः । स्वदारेष्वेव संतोषस्तच्चतुर्थमणुव्रतम् ॥ १४१ ॥ स्वर्णदास गृहक्षेत्रप्रभृतेः परिमाणतः । बुद्धचेच्छापरिमाणाख्यं पञ्चमं तदणुव्रतम् ॥१४२॥ गुणव्रतान्यपि त्रीणि पञ्चाणुव्रतधारिणः । शिष्या (क्षा) व्रतानि चत्वारि भवन्ति गृहिणः सतः ॥ १४३॥ यः प्रसिद्धेरभिज्ञानैः कृतावध्यनतिक्रमः । दिग्विदिक्षु गुणेष्वाद्यं वेद्यं दिग्विरतिर्व्रतम् ॥ १४४॥ ग्रामादीनां प्रदेशस्य परिमाणकृतावधि । बहिर्गतिनिवृत्तिर्या तद्देशविरतिर्व्रतम् ॥ १४५ ॥ पापोपदेशोऽपध्यानं प्रमादाचरितं तथा । हिंसाप्रदानमशुम श्रुतिश्वापीति पञ्चधा ॥१४६॥ पापोपदेश हेतुर्योऽनर्थदण्डोऽपकारकः । अनर्थदण्डविरतिव्रतं तद्विरतिः स्मृतम् ॥ १४७॥ पापोपदेश आदिष्टो वचनं पापसंयुतम् । यद्वणिग्वधकारम्भपूर्व सावद्यकर्मसु ॥ १४८॥ अपध्यानं जयः स्वस्य यः परस्य पराजयः । वधबन्धार्थहरणं कथं स्यादिति चिन्तनम् ॥ १४९ ॥ वृक्षादिच्छेदनं भूमिकुट्टनं जलसेचनम् । इत्याद्यनर्थकं कर्म प्रमादाचरितं तथा ॥ १५० ॥ विषकण्टकशस्त्राभिरज्जुदण्डकशादिनः । दानं हिंसाप्रदानं हि हिंसोपकरणस्य वै ॥ १५१ ॥ हिंसा रागादिसंवर्धिदुः कथाश्रुति शिक्षयोः । पापबन्धनिबन्धो यः स स्यात्पापाशुभश्रुतिः ॥ १५२॥ माध्यस्थ्यैकत्वगमनं देवतास्मरणस्थितेः । सुखदुःखारिमित्रादौ बोध्यं सामायिकं व्रतम् ॥१५३॥
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प्रकारके हैं। इनमें से त्रसकायिक जीवोंके विघातसे विरत होना पहला अहिंसाणुव्रत कहा गया है || १३८ || जिसमें राग, द्वेष, मोहसे प्रेरित हो पर पीड़ाकारक असत्य वचनसे विरति होती है वह दूसरा सत्याणुव्रत है || १३९ || दूसरेका गिरा पड़ा या भुला हुआ द्रव्य चाहे अधिक हो चाहे थोड़ा बना दी हुई दशामें उसको नहीं लेना तीसरा अचौर्याणुव्रत है || १४०|| परस्त्रियों में राग छोड़कर अपनी स्त्रियोंमें ही जो सन्तोष होता है वह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत है ॥ १४१ ॥ सुवर्णं, दास, गृह तथा खेत आदि पदार्थोंका बुद्धिपूर्वक परिमाण कर लेना इच्छापरिमाण नामका पाँचवाँ अणुव्रत है || १४२ ||
पाँच अणुव्रतोंके धारक सद्गृहस्थके तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भी होते हैं ||१४३॥ दिशाओं और विदिशाओं में प्रसिद्ध चिह्नों द्वारा की हुई अवधिका उल्लंघन नहीं करना सो दिव्रत नामका पहला गुणव्रत है || १४४|| दिग्वतके भीतर यावज्जीवनके लिए किये हुए बृहत् परिमाणके अन्तर्गत कुछ समय के लिए जो ग्राम-नगर आदिकी अवधि की जाती है उससे बाहर नहीं जाना सो देशव्रत नामका दूसरा गुणव्रत है || १४५ || पापोपदेश, अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसादान और दुःश्रुति पाँच प्रकारके अनर्थदण्ड हैं । जो पापके उपदेशका कारण है वह अपकार करनेवाला अनर्थदण्ड है उससे विरत होना सो अनर्थदण्ड त्याग नामका तीसरा गुणव्रत है ।। १४६-१४७।। afण तथा वधक आदिके सावद्य कार्योंमें आरम्भ करानेवाले जो पापपूर्ण बचन हैं वह पापोपदेश अनर्थं दण्ड है || १४८ || अपनी जय, दूसरेकी पराजय तथा वध, बन्धन एवं धनका हरण आदि किस प्रकार हो ऐसा चिन्तन करना सो अपध्यान है || १४९ ॥ वृक्षादिकका छेदना, पृथिवीका कूटना, पानीका सींचना आदि अनर्थक कार्यं करना प्रमादाचरित नामका अनर्थदण्ड है ॥ १५० ॥ विष, कण्टक, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, दण्ड तथा कोड़ा आदि हिंसा के उपकरणोंका देना सो हिंसादान नामका अनर्थदण्ड है || १५१ ॥ हिंसा तथा रागादिको बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओंके सुनने तथा दूसरोंको शिक्षा देने में जो पापबन्धके कारण एकत्रित होते हैं वह पापसे युक्त दुः नामका अनर्थदण्ड है ।। १५२ ॥
देवताके स्मरण में स्थित पुरुषके सुख-दुःख तथा शत्रु मित्र आदिमें जो माध्यस्थ्य भावकी १. बुद्धेच्छा म., क., ङ. । २. पापोपदेशो हेतुर्यो ड. । ३. शिक्षया म. 1४. स्थितिः म ।
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