________________
६७४
हरिवंशपुराणे प्राणिनो दुःखहेतुत्वादधर्माय वियोजनम् । प्राणानां तु प्रमत्तस्य समितस्य न बन्धकृत् ॥१२॥ स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्स्यारमा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वान वा वधः ॥१२९॥ सदर्थमसदर्थ च प्राणिपीडाकरं वचः । असत्यमनृतं प्रोक्तमृतं प्राणिहितं वचः ॥१३०॥ अदत्तस्य स्वयं प्राहो वस्तुनश्चौर्यमीर्यते । संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तियत्र तत्र तत् ॥१३१॥ अहिंसादिगुणा यस्मिन् वृहन्ति ब्रह्मतत्वतः। अब्रह्मान्यत्तु रत्यथं स्त्रीपुंसमिथुनेहितम् ॥१३२॥ गवाश्वमणिमुक्तादौ चेतनाचेतने धने । बाह्येऽबाह्ये च रागादौ हेयो मूर्छा परिग्रहः ॥१३३।। तेभ्यो विरतिरूपाण्यहिंसादीनि व्रतानि हि । महत्त्वाणुत्वयुक्तानि यस्य सन्ति व्रती तु सः ।।१३४॥ सत्यपि व्रतसंबन्धे निश्शल्यस्तु व्रती मतः । मायानिदानमिथ्यात्वं शाल्यं शल्यमिव त्रिधा ॥१३५॥ "सागारश्चानगारश्च द्वाविह व्रतिनौ मतौ। सागारोऽणुव्रतोऽत्र स्यादनगारो महाव्रतः ।।१३६॥ सागारो रागमावस्थो वनस्थोऽपि कथंचन । निवृत्तरागभावो यः सोऽनगारो गृहोषितः ॥१३७॥ सस्थावरकायेषु सकायापरोपणात् । विरतिः प्रथमं प्रोक्तमहिंसाख्यमणुव्रतम् ।।१३८॥
उनका विच्छेद करना सो हिंसा पाप है ॥१२७।। प्राणियोंके दुःखका कारण होनेसे प्रमादी मनुष्य जो किसीके प्राणोंका वियोग करता है वह अधर्मका कारण है-पापबन्धका निमित्त है परन्तु समितिपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले प्रमादरहित जीवके कदाचित् यदि किसी जीवके प्राणोंका वियोग हो जाता है तो वह उसके लिए बन्धका कारण नहीं होता है ।।१२८॥ प्रमादो आत्मा अपनी आत्माका अपने-आपके द्वारा पहले घात कर लेता है पीछे दूसरे प्राणियोंका वध होता भी है और नहीं भी होता है ॥१२९॥ विद्यमान अथवा अविद्यमान वस्तुको निरूपण करनेवाला प्राणि-पीड़ा. कारक वचन असत्य अथवा अनत वचन कहलाता है। इसके विपरीत जो वचन प्राणियोंका हित करनेवाला है वह ऋत अथवा सत्यवचन कहलाता है ।।१३०॥ बिना दी हुई वस्तुका स्वयं ले लेना चोरी कही जाती है। परन्तु जहाँ संक्लेश परिणामपूर्वक प्रवृत्ति होती है वहीं चोरी होती है ।।१३१॥ जिसमें अहिंसादि गुणोंको वृद्धि हो वह वास्तविक ब्रह्मचर्य है। इससे विपरीत सम्भोगके लिए स्त्री-पुरुषोंकी जो चेष्टा है वह अब्रह्म है ॥१३२॥ गाय, घोड़ा, मणि, मुक्ता आदि चेतन, अचेनरूप बाह्य धनमें तथा रागादिरूप अन्तरंग विकारमें ममताभाव रखना परिग्रह है। यह परिग्रह छोड़ने योग्य है ।।१३३॥ इन हिंसादि पांच पापोंसे विरत होना सो अहिंसा आदि पांच व्रत हैं। ये व्रत महाव्रत और अणुव्रतके भेदसे दो प्रकारके हैं तथा जिसके ये होते हैं वह व्रती कहलाता है ।।१३४|| व्रतका सम्बन्ध रहनेपर भी जो निःशल्य होता है वही व्रती माना गया है। माया, निदान और मिथ्यात्वके भेदसे शल्य तीन प्रकारको है। यह शल्य, शल्य अर्थात् काँटोंके समान दुःख देनेवाली है ॥१३५।।
सागार और अनगारके भेदसे व्रती दो प्रकारके माने गये हैं। इनमें अणुव्रतोंके धारी सागार कहलाते हैं और महाव्रतोंके धारक महाव्रती कहे जाते हैं ॥१३६।। जो मनुष्य राग-भावमें स्थित है वह किसी तरह वनमें रहनेपर भी सागार-गृहस्थ है और जिसका रागभाव दूर हो गया है वह घरमें रहनेपर भी अनगार है ॥१३७।। त्रस और स्थावरके भेदसे जीव दो १. उच्चालिदम्हि पादे इरियासमिदस्स णिग्गमणट्टाणे । आवादे धेज्जलिंगों मरेज्जातज्जोगमासेज्ज ॥१॥ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुह सोवि देसिदो समए । मुच्छापरिग्गहो ति य अज्झप्पज्जाणदो भणिदो ॥२॥ सर्वार्थसिद्धौ उद्धृतम् । २. प्राण्यङ्गहरणात् म.। ३. यस्मात्सकषायः सन् हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम् । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय । ४. अदत्तादानं स्तेयम् । ५. मैथुनमब्रह्म। ६. अब्रह्मण्यं तु क., अब्रह्मान्यस्तु म., ङ.। ७. हेये म., ङ.। ८. मूपिरिग्रहः। ९. निःशल्यो व्रती । १०. यतः म.। ११. अगार्यनगारश्च । १२. अणुव्रतोऽगारी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org