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अष्टपञ्चाशः सर्गः 'केवलिश्रुतसंघेषु धर्मदेवेष्ववर्णवाक् । हेतुर्दर्शनमोहस्याप्यास्रवस्य निरूपितः ॥१६॥ उदयात्तु कषायाणां परिणामोऽपि तीवकः । हेतुश्चारित्रमोहस्य नानाभेदास्रवस्य तु ॥१७॥ तत्र स्वान्यकषायाणामुत्पादेन समुद्धता । कषायवेदनीयस्य हेतुः सद्वृत्तदूषणम् ॥९८॥ प्रहासशीलतादिः स्याद्धर्मोपहसनादिमिः । सहास्यवेदनीयस्य महानवनिबन्धनम् ॥९५॥ विचित्रक्रीडनासक्ति तशीलाधरोचनम् । रत्याख्यवेदनीयस्य हेतुः स्यादास्रवो महान् ॥१०॥ परारतिविधानं च रतेरपि विनाशनम् । अरतेवेंदनीयस्य हेतुर्दुश्शीलसेवनम् ॥१०॥ स्वशोकोत्पादनं चान्यशोकवृदयभिनन्दनम् । कुशोकवेदनीयस्य नित्यमानवकारणम् ॥१.२॥ मयोत्पादनमन्येषां स्वमयस्य च भावनम् । भयाख्यवेदनीयस्य सन्ततो हेतुरास्रवे ॥१०३॥ कुशलाचरणाचारजुगुप्सापरिवादिता । जुगुप्सावेदनीयस्य हेतुरासवगोचरः ॥१०॥ अतिसंधानपरता परस्यालीकवादिता । प्रवृद्धरागतादि स्त्रीवेदनीयस्य कारणम् ॥१०५॥ सानुस्सेकतनुक्रोधस्वदारपरितोषिताः । हेतुः पुंवेदनीयस्य कर्मणः संसृतौ मतः ॥१०६॥ प्राचुर्य च कषायाणां गुह्याङ्गव्यपरोहणम् । परस्त्रीसक्तिरन्त्यस्य वेदनीयस्य हेतवः ॥१०॥
के आस्रव हैं ॥९४-९५।। केवली, श्रुत, संघ, धर्म तथा देवका अवर्णवाद करना-झूठे दोष लगाना दर्शन मोहनीय कर्मके आस्रवके हेतु कहे गये हैं। केवली कवलाहारसे जीवित रहते हैं इत्यादि असद्भूत दोषोंका निरूपण करना केवलीका अवर्णवाद है। शास्त्रमें मांस भक्षण आदि निषिद्ध कार्योंका उल्लेख है इत्यादि कहना श्रतका अवर्णवाद है। ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकारके मुनियोंका समूह संघ कहलाता है-इनके दोष कहना अर्थात् ये शरीरसे अपवित्र हैं, शूद्र-तुल्य हैं, नास्तिक हैं, आदि कहना संघका अवर्णवाद है। जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा कहा हुआ धर्म निर्गुण है और उसके पालन करनेवाले असुर होते हैं इत्यादि कहना धर्मका अवर्णवाद है और देव मांस-मदिराका सेवन करते हैं, इत्यादि कहना देवका अवर्णवाद है ॥९६॥ कषायके उदयसे जो तीन परिणाम होता है वह चारित्र मोहके नानाप्रकारके आस्रवोंका कारण है ॥९७|| चारित्र मोहनीयके कषायवेदनीय और अकषायवेदनीयकी अपेक्षा दो भेद हैं। इनमें से निज तथा परको कषाय उत्पन्न कर उद्धत वृत्तिका धारण करना तथा तपस्विजनोंके सम्यक् चारित्रमें दूषण लगाना कषायवेदनीयके आस्रव हैं। धर्मका उपहास आदि करनेसे हास्यरूप स्वभावका होना अर्थात् धर्मकी हंसी उड़ाकर प्रसन्नताका अनुभव करना हास्य अकषायवेदनीयका आस्रव है ।।९८-१००। दूसरोंको अरति उत्पन्न करना, रतिको नष्ट करना और दुष्ट स्वभावके धारक जनोंकी सेवा करना रति नामक अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ॥१०१॥ अपने-आपको शोक उत्पन्न करना तथा दूसरोंके शोककी वृद्धि देख प्रसन्नताका अनुभव करना शोक अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ।। १०२।। दूसरोंको भय उत्पन्न करना तथा अपने भयको चिन्ता करना भय अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ।।१०३।। उत्तम आचरण करनेवाले मनुष्योंके आचारमें ग्लानि करना तथा उनको निन्दा करना जुगुप्सा अकषायवेदनीयका आस्रव है ।।१०४॥ दूसरेको धोखा देने में अत्यधिक तत्पर रहना, असत्य बोलना तथा रागकी अधिकता होना स्त्री अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ॥१०५।। नम्रतासे सहित होना, क्रोधकी न्यूनता होना और अपनी स्त्रीमें सन्तोष रखना ये संसारमें पुंवेद अकषायवेदनीयके आस्रव माने गये हैं ।।१०।। कषायोंकी प्रचुरता होना, गुह्य अंगोंका छेदन करना तथा परस्त्री में आसक्ति रखना ये नपुंसक अकषायवेदनीयके आस्रव हैं ।।१०७||
१ केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ॥१३॥ त. सू. अ. ६ । २. कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ॥१४॥ त. सू. अ. ६ । ३. सद्वृत्तभुषणम् । ४. निन्दनम् म. ।
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