________________
हरिवंशपुराणे
भक्तपानोपकरणसंयोगद्वितयात्मना । तद्द्वैविध्यं हि संयोगकारणस्य च कीर्तितम् ॥ ८९ ॥ यन्निसर्गाधिकरणं तत्त्रैविध्यं प्रपद्यते । वाङ्मनः काय पूर्वैस्तु निसर्गैस्तत्प्रवर्तनैः ॥ ९० ॥ कर्मावाणां भेदोऽयं सामान्येन निरूपितः । भेदः कर्मविशेषाणामास्रवस्य विशिष्यते ॥ ९१ ॥ 'प्रदोषनिह्न वादनविघ्नासादनदूषणाः । ज्ञानस्य दर्शनज्ञानावृत्योरास्त्रव हेतुतः ॥ ९२ ॥ 'दुःखशोकवधाकन्दतापाः सपरिदेवनाः । असद्वेद्यास्रवद्वाराः स्वपरोभयवर्तिनः ॥ ९३ ॥ 'दया सकलभूतेषु वतिष्वत्य नुरागता । सरागसंयमो दानं शान्तिः शौचं यथोदितम् ॥९४॥ अर्हस्पूजादितात्पर्यं बालवृद्धतपस्विषु । वैश्यावृत्यादयो वेद्याः सद्वेद्यास्त्रवहेतवः ।। ९५ ।।
६७०
3
अव्यवस्था के साथ चाहे जहाँ किसी वस्तुको रख देना अनाभोग निक्षेप है और बिना देखी-शोधी भूमि में किसी वस्तुको रख देना अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है ||८८ || भक्तपान संयोग और उपकरण संयोग से संयोगाधिकरण आस्रव दो प्रकारका कहा गया है। भोजन और पानको अन्य भोजन तथा पानमें मिलाना भक्तपान संयोग है तथा बिना विवेकके उपकरणोंका परस्पर मिलना उपकरण संयोग है जैसे शीतस्पर्शयुक्त पीछोसे घाममें सन्तप्त कमण्डलुका सहसा पोंछना आदि ॥८६॥ वा निसर्ग, मनोनिसर्ग और कार्यनिसर्गके भेदसे निसर्गाधिकरण आस्रव तीन रूपताको प्राप्त होता है । वचनकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको वा निसर्ग कहते हैं, मनकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको मनोनिसर्ग कहते हैं और कायको स्वच्छन्द प्रवृत्तिको काय निसर्ग कहते हैं ||१०|| इस प्रकार यह सामान्य रूप से कर्मास्रत्रोंका भेद कहा। अब ज्ञानावरणादिके भेदसे युक्त विशिष्ट कर्मोंके आस्रवका भेद कहा जाता है || ९१ ॥ ज्ञानके विषय में किये हुए प्रदोष, निह्नव, आदान, विघ्न, आसादन और दूषण ज्ञानावरणके आस्रव हैं और दर्शन के विषय में किये हुए प्रदोष आदि दर्शनावरणके आस्रव हैं । मोक्षके साधनभूत तत्त्वज्ञानका निरूपण होनेपर कोई मनुष्य चुपचाप बैठा है परन्तु भीतर ही भीतर उसका परिणाम कलुषित हो रहा है इसे प्रदोष कहते हैं। किसी कारण से 'मेरे पास नहीं है' अथवा 'मैं नहीं जानता हूँ' इत्यादि रूपसे ज्ञानको छिपाना निह्नव है । मात्सर्यके कारण देने योग्य ज्ञान भी दूसरेको नहीं देना सो अदान है। ज्ञानमें अन्तराय डाल देना विघ्न है । दूसरे के द्वारा प्रकाशमें आने योग्य ज्ञानको काय और वचनसे रोक देना आसादन है और प्रशस्त ज्ञानमें दोष लगाना दूषण है ||१२||
वेदनीय कर्मके दो भेद हैं- १ असातावेदनीय और २ सातावेदनीय। इनमें से निज, पर और दोनों के विषय में होनेवाले दुःख, शोक, वध, आक्रन्दन, ताप और परिदेवन ये असातावेदनीयके आस्रव हैं । पीड़ारूप परिणामको दुःख कहते हैं । अपने उपकारक पदार्थोंका सम्बन्ध नष्ट हो जानेपर परिणामोंमें विकलता उत्पन्न होना शोक है। आयु, इन्द्रिय तथा बल आदि प्राणोंका वियोग करना वध है । सन्ताप आदिके कारण अश्रुपात करते हुए रोना आक्रन्दन है । लोकमें अपनी निन्दा आदिके फैल जानेसे हृदयमें तीव्र पश्चात्ताप होना ताप है । और उपकारीका वियोग होनेपर उसके गुणों का स्मरण तथा कीर्तन करते हुए इस तरह विलाप करना जिससे सुननेवाले दयार्द्र हो जावें उसे परिदेवन कहते हैं ॥ ९३ ॥ समस्त प्राणियोंपर दया करना, व्रतो जनोंपर अनुराग रखना, सरागसंयम, दान, क्षमा, शौच, अहंन्त भगवान् की पूजामें तत्पर रहना और बालक तथा वृद्ध तपस्वियोंकी वैयावृत्ति आदि करना सातावेदनीय१. तत्प्रदोष निवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ १० ॥ त. सू. अ. ६ । २. निह्नवादाने म., ङ. । ३. दुःखशोकतापाक्रन्दनवघपरिदेव नान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ॥११॥ त. सू. अ. ६ । ४. भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य ||१२|| त. सू. अ. ६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org