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हरिवंशपुराणे सचेतनानुबन्धो यः 'स्प्रष्टव्येऽतिप्रमादिनः । सा स्पर्शनक्रिया ज्ञेया कर्मोपादानकारणम् ॥७॥ उत्पादनादपूर्वस्य पापाधिकरणस्य तु । पापास्रवकरी प्रायः प्रोक्ता प्रत्यायिकी क्रिया ॥७१॥ स्त्रीपंसपशुसंपातिदेशेऽन्तर्मलमोक्षणम् । क्रिया साधुजनायोग्या सा समन्तानुपातिनी ॥७२॥ अप्रमृष्टाप्रदृष्टायो निक्षेपोऽङ्गादिनः क्षितौ । अनाभोगक्रिया सा तु पञ्चैता अपि दुरिक्रयाः ॥७३॥ परेणैव तु निर्वा या स्वयं क्रियते क्रिया। सा स्वहस्तक्रिया बोध्या पूर्वोक्तास्रवर्धिनी ॥७४॥ पापादानादिवृत्तीनामभ्यनुज्ञानमात्मना । सा निसर्गक्रिया नाम्ना निसर्गणास्रवावहा ॥७५॥ पराचरितसावधक्रियादेस्तु प्रकाशनम् । विदारणक्रिया सान्यधीविदारणकारिणी ॥७६॥ यथोक्काज्ञानसक्तस्य कर्तुमावश्यकादिपु । प्ररूपणान्यथा मोहादाज्ञाव्यापादिकी क्रिया ॥७७॥ 'शाठ्यालस्याद्धि शास्त्रोक्तविधिकर्तव्यतां प्रति । अनादरस्त्वनाकाक्षा-क्रिया पञ्चक्रिया इमाः ॥७८॥ आरम्भे क्रियमाणेऽन्यः स्वयं हर्षः प्रमादिनः । सा प्रारम्भक्रियात्यन्तं तात्पर्य वा छिदादिषु ॥७९॥ सा पारिग्राहिकी ज्ञेया परिग्रहपरा क्रिया। मायाक्रियापि च ज्ञानदर्शनादिषु वञ्चना ॥८॥ या मिथ्यादर्शनारम्भदृढीकरणतत्परा । प्रोत्साहनादिनान्यस्य सा मिथ्यादर्शनक्रिया ॥८१॥
कर्मोदयवशात्पापादनिवृत्तिरपि क्रिया। अप्रत्याख्यानसंज्ञा सा पञ्चामूरास्रवक्रियाः ॥१२॥ तब उसके दर्शन क्रिया होती है ।।६९|| वही मनुष्य जब अत्यधिक प्रमादी बन स्पर्श करने योग्य पदार्थका बार-बार चिन्तन करता है तब कर्मबन्धमें कारणभूत स्पर्शन क्रिया होती है ।।७०॥ पापके नये-नये कारण उत्पन्न करनेसे पापका आस्रव करनेवाली जो क्रिया होतो है वह प्रत्यायिकी क्रिया कही गयी है ।।७१।। स्त्री-पुरुष और पशुओंके मिलने-जुलने आदिके योग्य स्थानपर शरीर-सम्बन्धी मल-मूत्रादिको छोड़ना समन्तानुपातिनी क्रिया है। यह क्रिया साधुजनोंके अयोग्य है ।।७२।। बिना शोधी, बिना देखी भूमिपर शरीरादिका रखना अनाभोगक्रिया है। ये पांचों ही क्रियाएं दुष्क्रियाएं कहलाती हैं ।।७३।। दूसरेके द्वारा करने योग्य क्रियाको स्वयं अपने हाथसे करना यह पूर्वोक्त आस्रवको बढ़ानेवाली स्वहस्तक्रिया है ॥७४॥ पापोत्पादक वृत्तियोंको स्वयं अच्छा समझना निसर्गक्रिया है, यह स्वभावसे ही आस्रवको बढ़ानेवाली है ।।७५|| दूसरेके द्वारा आचरित पापपूर्ण क्रियाओंका प्रकट करना यह दूसरेकी बुद्धिको विदारण करनेवाली विदारण क्रिया है ॥७६|| आगमकी आज्ञाके अनुसार आवश्यक आदि क्रियाओंके करने में असमर्थ मनुष्यका मोहके उदयसे उनका अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है ।।७७।। अज्ञान अथवा आलस्यके सहित
रण शास्त्रोक्त विधियोंके करने में अनादर करना अनाकांक्षाक्रिया है, इस प्रकार ये पाँच क्रियाएं हैं ॥७८॥
दसरोंके द्वारा किये जानेवाले आरम्भमें प्रमादी होकर स्वयं हर्ष मानना अथवा छेदन-भेदन आदि क्रियाओंमें अत्यधिक तत्पर रहना प्रारम्भ क्रिया है ।।७९।। परिग्रहमें तत्पर जो क्रिया है वह पारिग्रहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदिके विषयमें जो छलपूर्ण प्रवृत्ति है वह मायाक्रिया है ॥८०॥ प्रोत्साहन आदिके द्वारा दूसरेको मिथ्यादर्शनके प्रारम्भ करने तथा उसके दृढ़ करनेमें तत्पर जो क्रिया है वह मिथ्यादर्शन क्रिया है ।।८१।। कर्मोदयके वशीभूत होनेसे पापसे निवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान किया है। इस प्रकार आस्रवको बढ़ानेवाली ये पाँच क्रियाएँ हैं । इस प्रकार पांच-पाँचके पचीस क्रियाओंका वर्णन किया ॥८२।।
१. स्प्रष्टव्योऽतिप्रमादिनः म.। २. दर्शनक्रिया म.। ३. वरेणैव म.। ४. सान्या धोविदारण- म., ङ. । ५. यथोक्तादान- । ३. सा व्यालस्याद्धि म., साद्यालस्याद्धि. क., ङ.। ७. हर्षप्रमादिनः । ८ वाञ्छितादिषु म., क., ङ., ख.। ९. पारिग्राहिणी म., क., ङ.।
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