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हरिवंशपुराणे
दानशीलतपः पूजाप्रारम्भास्तत्फलानि च । तद्वियोगविपत्तीश्च तानि श्रद्धापयन्त्यमून् ||८२॥ स्फुरत्पुलकसंसक्तमुक्तादामोन्मिषन्मणिः । पताका घण्टिकारोवरमणीयानिले रिता ॥८३॥ उदंशुरत्नमालेव स्फुरन्ती वीचिरर्णवे । वीक्ष्यते व्योमनीन्द्राद्यः कौतुकाद्येन चामितः ॥ ८४ ॥ राजतीन्द्रध्वजः सोऽयं तन्मध्ये हेमपीठिका | भलंकुर्वन् यथामूर्ती देहो देवजयश्रियः ||२५|| ततः स्तम्भसहस्रस्थो मण्डपोऽस्ति महोदयः । नाम्ना मूर्तिमती यत्र वर्तते श्रुतदेवता ॥ ८६ ॥ तां कृत्वा दक्षिणे भागे धीरैर्बहुश्रुतैर्वृतः । श्रुतं व्याकुरुते यत्र श्रायसं श्रुतकेवली ॥८७॥ तदर्धमानाश्वत्वारस्तत्परीवारमण्डपाः । आक्षेपण्यादयो येषु कथ्यन्ते कथकैः कथाः ||८८ ॥ तत्प्रकीर्णकवासेषु चित्रेष्वाचक्षते स्फुटम् । ऋषयः स्वष्टमर्थिभ्यः केवलादिमहर्द्धयः || ८९ ।। तपनीयमयं पीठं ततश्चित्रलताचितम् । यत्तद्वल्युपहारेण यथाकालं समर्च्यते ||१०|| "पीठाई श्रीपदद्वारं सरत्नकुसुमोस्करम् । मण्डलैः पूर्यते मध्ये मार्ग चन्द्रार्कस प्रभैः ॥ ९१ ॥ अभितः स्वाख्यया द्वौ तं मण्डपौ स्तः प्रभासकौ । अभ्यध्वं राजतो यत्र निधीशौ कामदायिनौ ।। ९२ || प्रेक्षाशाले विशाले स्तः प्रमदाख्ये ततोऽन्तरे । यत्र कल्पनिवासिन्यो नृत्यन्त्यप्सरसः सदा ॥ ९३ ॥ विजयाजिरकोणेषु विलसत्केतुमालिनः । चत्वारो योजनोद्विन्दा लोकस्तूपा भवन्त्यमी ॥ ९४ ॥
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दिखलाते हैं तो कहीं पापका परिपाक दिखाकर अधर्मका साक्षात् फल दिखलाते हैं || ८१ ॥ वे भवन, उन दर्शकजनों को दान, शील, तप और पूजाके प्रारम्भ तथा उनके फलोंकी एवं उनके अभाव में होनेवाली विपत्तियोंकी श्रद्धा कराते हैं ॥ ८२ ॥ | उस जयांगण के मध्य में सुवर्णमय पीठको अलंकृत करता हुआ इन्द्रध्वज सुशोभित होता है जो ऐसा जान पड़ता है मानो भगवान्को विजयलक्ष्मीका मूर्तिधारी शरीर ही हो । उस इन्द्रध्वजमें देदीप्यमान गोले, लटकती हुई मोतियों की माला और जगमगाते हुए मणियोंसे युक्त एक पताका लगी रहती है । वह पताका वायुसे कम्पित होने के कारण घण्टियोंके शब्दसे अत्यन्त रमणीय जान पड़ती है । ऊपर उठती हुई किरणोंसे युक्त रत्नों की माला से सुशोभित वह पताका जब आकाशमें फहराती है तब ऐसी जान पड़ती है मानो समुद्रसे लहर ही उठ रही हो । इन्द्रादिक देव उसे बड़े कौतुकसे देखते हैं ।।८३-८५ ।।
उसके आगे एक हजार खम्भोंपर खड़ा हुआ महोदय नामका मण्डप है जिसमें मूर्तिमती श्रुतदेवता विद्यमान रहती है || ८६ | | उस श्रुतदेवताको दाहिने भाग में करके, बहुश्रुतके धारक अनेक धीर-वीर मुनियोंसे घिरे श्रुतकेवली कल्याणकारी श्रुतका व्याख्यान करते हैं || ८७ || महोदय मण्डप आधे विस्तारवाले चार परिवार मण्डप और हैं जिनमें कथा कहनेवाले पुरुष आक्षेपिणी आदि कथाएं कहते रहते हैं ||८८ || इन मण्डपोंके समीपमें नाना प्रकारके फुटकर स्थान भी बने रहते हैं जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाऋद्धियोंके धारक ऋषि इच्छुकजनोंके लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं ||८९ ॥
उसके आगे नाना प्रकार की लताओंसे व्याप्त एक सुवर्णमय पीठ रहता है जिसकी भव्यजीव नाना प्रकार की समयानुसार पूजा करते हैं ||१०|| उस पीठका श्रीपद नामका द्वार है जो रत्नों और फूलोंके समूहसे युक्त है तथा जो मार्ग के बीच में बने हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान देदीप्यमान मण्डलोंसे परिपूर्ण है ||२१|| उस द्वारके दोनों ओर प्रभासक नामके दो मण्डप हैं जिनमें मागँके सम्मुख, इच्छानुसार फल देनेवाले निधियों के स्वामी दो देव सुशोभित रहते हैं ||९२ ॥ उनके आगे प्रमदा नामकी दो विशाल नाट्यशालाएं हैं जिनमें कल्पवासिनी अप्सराएं सदा नृत्य करती रहती हैं ||१३|| विजयांगणके कोनोंमें चार लोकस्तूप होते हैं जिनपर पताकाओं की पंक्तियाँ
१. रावो म., क., ङ । २. म. । ५. पीठा म., ङ । ६
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लेरिताः म. क., ङ. । ३ वीभिता ख., वीक्षिता म । ४. हेमपीठिका मध्ये मार्गश्चन्द्रार्क - म. क., ङ. । ७. अत्यध्वं म । ८. तमोऽम्बरे म, ।
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