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अष्टपञ्चाशः सर्गः
मधुरस्निग्धगम्भीरदिव्योदात्तस्फुटाक्षरम् । वर्ततेऽनन्यवृत्तैका तत्र साध्वी सरस्वती ||९|| भावाभावद्वयाद्वैतभावबद्धा जगत्स्थितिः । भहेतुर्दृश्यते तस्यामनाथा पारिणामिकी ||१०|| अस्त्यारमा परलोकोऽस्ति धर्माधर्मौ स्त एव च । तयोः कर्तास्ति भोक्तास्ति चास्ति नास्तीति यत्पदम् ॥ ११॥ स्वयं कर्म करोत्यामा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्राम्यति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ||१२|| अविद्यारागसंक्लिष्टो बम्भ्रमीति' भवार्णवे । विद्यावैराग्यशुद्धः सन् सिद्धयत्यविकल स्थितिः ॥१३॥ इत्याध्यात्म विशेषस्य दीपिका दीपिकेव सा । रूपादेः शमयत्याशु तमिस्रं तत्र सन्ततम् ||१४|| अनानात्मापि तद्वृत्तं नाना पात्रगुणाश्रयम् । सभायां दृश्यते नाना दिव्यमम्बु यथावनी ||१५|| सावधानसभान्तस्थं ध्वान्तं सावरणं ध्वनिः । जैनोत्य कमिनदिव्यो विश्वात्मेत्यादिभासनः ।। १६ ।। भवपद्वतिपान्थस्य भव्यताशुद्वियोगिनः । देहिनः पुरुषार्थोऽत्र प्रेक्षितो मोक्षलक्षणः ॥१७॥ उपायस्तस्य मोक्षस्य ध्यानाध्यानैकहेतुतः । प्राक्सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रत्रितयात्मकः ||८|| सम्यग्दर्शन मत्रेष्टं तत्त्वश्रद्धानमुज्ज्वलम् । व्यपोढसंशयाद्यन्तैर्निश्शेषमलसङ्करम् ||१९|| तच्च दर्शन मोहान्धक्षयोपशममिश्रजम् । क्षायिकाद्यं त्रिधा द्वेधा निसर्गाधिगमत्वतः ॥ २०॥ स्निग्ध, गम्भीर, दिव्य, उदात्त और स्पष्ट अक्षरोंसे युक्त थी, अनन्यरूप थी, एक थी और साध्वीअतिशय निर्मल थी ||३९||
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भगवान् की उस दिव्यध्वनिमें जगत्की वह स्थिति दिख रही थी जो भाव और अभाव के अद्वैत-भाव से बंधी हुई है अर्थात् द्रव्यार्थिक नयसे भावरूप और पर्यायार्थिक नयसे अभावरूप है, अहेतुक है - किसी कारणसे उत्पन्न नहीं है, अनादि है और पारिणामिको है - स्वतः सिद्ध है ॥१०॥ आत्मा है, परलोक है, धर्म और अधर्मं है, यह जीव उनका कर्ता है, भोक्ता है तथा संसारके सब पदार्थं अस्तिरूप और नास्तिरूप हैं, यह कथन भी उसी दिव्यध्वनिमें दिखाई देता था || ११ || यह जीव स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वयं संसार में घूमता है और स्वयं उससे मुक्त होता है ॥ १२ ॥ अविद्या तथा रागसे संक्लिष्ट होता हुआ संसार-सागरमें बार-बार भ्रमण करता है और विद्या तथा वैराग्यसे शुद्ध होता हुआ पूर्णस्वभाव में स्थित हो सिद्ध हो जाता है ||१३|| इस अध्यात्म-विशेषको प्रकट करनेके लिए वह दीपिकाके समान थी तथा रूप आदि गुणोंके विषयमें जो अज्ञानान्धकार विस्तृत था उसे शीघ्र ही दूर कर रही थी ||१४|| जिस प्रकार आकाशसे बरसा पानी एकरूप होता है परन्तु पृथिवीपर पड़ते ही वह नाना रूप दिखाई देने लगता है, उसी प्रकार भगवान्की वह वाणी यद्यपि एकरूप थी तथापि सभा में पात्रके गुणों के अनुसार वह नानारूप दिखाई दे रही थीं ॥ १५ ॥ संसारके जीवादि समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली भगवान्को वह दिव्यध्वनि सूर्यको पराजित करनेवाली थी तथा सावधान होकर बैठी हुई सभा अन्तःकरण में स्थित आवरण- सहित अज्ञानान्धकारको खण्ड-खण्ड कर रही थी ॥ १६ ॥ भगवान् कह रहे थे कि संसारके मार्गका जो पथिक भव्यतारूपी शुद्धिसे युक्त होता है उसीके मोक्ष पुरुषार्थ देखा गया है । भावार्थ - मोक्षकी प्राप्ति भव्य जीवको ही होती है ॥ १७॥ उस मोक्षका उपाय ध्यान और अध्ययन रूप एक हेतुसे प्राप्त होता है तथा सबसे पूर्वं वह, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनके समुदायरूप है || १८ || उनमें जीवादि सात तत्त्वोंका, निर्मल तथा शंका आदि समस्त अन्तरंग मलोंके सम्बन्धसे रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है ।। १९ ।। वह सम्यग्दर्शन, दर्शनमोहरूपी अन्धकारके क्षय, उपशम तथा क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, क्षायिक आदिके भेदसे तीन प्रकारका है और निसगंज तथा अधिगमजके भेद
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१. द्वैते भावबद्धा म. । २. अतिशयेन भूयो भूयो वा भ्रमतीति ( क. टि. ) । ३. भास्वन: म । ४. हेतुनः म. । ५. संशयाद्यन्तनिः शेष-म । ६. क्षायिकत्वं म. ।
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