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अष्टपश्चाशः सर्ग:
श्यामाककणमात्रो न न चाकाशाणुमात्रकः । नाङ्गठपर्वमानो वा न पञ्चशतयोजनः ॥३२॥ देहे देहे 'सवृत्तित्वे प्रदेशः सकलैः सह । न स्वार्थ प्रतिपद्येत स्पर्शनं चक्षुरादिवत् ॥३३॥ परिमाणमहत्त्वेऽपि योजनेषु बहुष्वपि । 'स्पर्शनं न समन्तः स्याञ्चक्षुषेवार्थदर्शनम् ॥३॥ तथा सति विरोधः स्यादृष्टेष्टाभ्यां पुमानयम् । देहमानोऽधिगन्तव्यः सर्वस्यानुमवात्तथा ॥३५॥ स गतीन्द्रियषटकाययोगवेदकषायतः । ज्ञानसंयमसम्यक्त्वलेश्यादर्शनसंशिभिः ॥३६॥ भव्यत्वाहारपर्यन्तमार्गणाभिः स मृग्यते । चतुर्दशभिराख्यातो गुणस्थानैश्च चेतनः ॥३॥ प्रमाणनयनिक्षेपसत्संख्यादिकिमादिमिः । संसारी प्रतिपत्तव्यो मुक्तोऽपि निजसद्गुणैः ॥३८॥ नयोऽनेकात्मनि द्रव्ये नियतैकारमसंग्रहः । द्रव्यार्थिको यथार्थोऽन्यः पर्यायाथिक एव च ॥३९॥ 'ज्ञेयो मूलन यावेतावन्योन्यापेक्षिणौ मतौ । सम्यग्दृष्टास्तयो दाः संगता नैगमादयः ॥४०॥ "नैगमः संग्रहश्चात्र व्यवहारर्जुसूत्रको । शब्दः सममिरूढाख्य एवंभूतश्च ते नयाः ॥४१॥
रूप है, अपने शरीर प्रमाण है और वर्णादि बीस गुणोंसे रहित है ॥३०-३१॥ न यह आत्मा सावांके कणके बराबर है, न आकाशके बराबर है, न परमाणुके बराबर है, न अंगूठाके पोराके बराबर है और न पांच सौ योजन प्रमाण है ॥३२॥ यदि आत्माको सावांके कण, अंगुष्ठ-पर्व अथवा परमाणुके समान छोटा माना जायेगा तो आत्मा प्रत्येक शरीरमें उसके खण्ड-खण्ड रूप प्रदेशोंके साथ ही रह सकेगा, समस्त प्रदेशोंके साथ नहीं और इस दशामें जहां आत्मा न रहेगा वहांकी स्पर्शन इन्द्रिय अपना कार्य नहीं कर सकेगी। जिस प्रकार चक्षुरादि इन्द्रियां शरीरके किसी निश्चित स्थानमें ही कार्य कर सकती हैं उसी प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय भी जहां आत्मा होगा वहीं कार्य कर सकेगी सर्वत्र नहीं। इसी प्रकार आत्माका परिमाण यदि शरीरसे अधिक माना जायेगा तो अनेकों योजनों तक जहाँ कि शरीर नहीं है मात्र आत्माके प्रदेश हैं, वहाँ सब ओर क्या पदार्थका स्पर्शन होने लगेगा? और इस दशामें जिस प्रकार चक्षुके द्वारा योजनोंकी दूरी तक पदार्थोंका अवलोकन होता है उसी प्रकार योजनोंकी दूरी तक पदार्थका स्पर्शन भी होने लगेगा और ऐसा माननेपर प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनोंसे विरोध आता है इसलिए शरीरके प्रमाण ही आत्माको मानना चाहिए। सबका अनुभव भी इसी प्रकारका है॥३३-३५॥ वह जीव गति, इन्द्रिय, छह काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, सम्यक्त्व, लेश्या, दर्शन, संज्ञित्व, भव्यत्व और आहार इन चौदह मार्गणाओंसे खोजा जाता है तथा मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानोंसे उसका कथन किया गया है ॥३६-३७॥ प्रमाण, नय, निक्षेप, सत्, संख्या और निर्देश आदिसे संसारी जीवका तथा अनन्त ज्ञान आदि आत्मगुणोंसे मुक्त जीवका निश्चय करना चाहिए ॥३८॥ वस्तुके अनेक स्वरूप हैं उनमें से किसी एक निश्चित स्वरूपको ग्रहण करनेवाला ज्ञान नय कहलाता है। इसके द्रव्याथिक और पर्यायाथिकके भेदसे दो भेद हैं। इनमें द्रव्यार्थिक नय यथार्थ है और पर्यायाथिक नय अयथार्थ है ॥३९।। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये ही दो मूल नय हैं तथा दोनों ही परस्पर सापेक्ष माने गये हैं। अच्छी तरह देखे गये नेगम, संग्रह आदि नय इन्हीं दोनों नयोंके भेद हैं ॥४०॥ नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द समभिरूढ और
१. देहे देहसवृत्तित्वे क.। २. शकलैः ङ., ख.। ३. स्पर्शनं न तस्य स्याच्चक्ष ङ., समं तस्य चक्षुषेवार्थख., ग.। ४. राख्यातगुण-म., ङ., ग. । ५. सामान्यलक्षणं तावद्वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापण-प्रवण-प्रयोगो नयः। स द्वधा द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्चेति (स. स.)। ६. दो चेव मूलिमणया भणिया दवत्थपज्जयत्थगया । अण्णं असंखसंखा ते तब्भेया मुणेयव्वा ॥११॥-लघुनयचक्रसंग्रह । ७. नैगमसंग्रहव्यवहाजु सूत्रशब्दसमभिरूडैवंभूता नया:-त. सू. ।
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