________________
६६२
हरिवंशपुराणे जीवाजीवास्रवा बन्धसंवरौ निर्जरा तथा । मोक्षश्च सप्त तत्त्वानि श्रद्धयानि स्वलक्षणः ॥२१॥ जीवस्य लक्षणं लक्ष्यमुपयोगोऽष्टधा स च । मतिश्रुतावधिज्ञानद्विपर्यय पूर्वकः ॥२२॥ इच्छा द्वेषः प्रयत्नश्च सुखं दुःखं चिदात्मकम् । आत्मनो लिङ्गमेतेन लिङ्ग यते चेतनो यतः ॥२३।। न पृथिव्यादिभूतानां जीवः संस्थानमात्रकः । तदवस्थास्य कायस्य चैतन्यव्यभिचारिणः ॥२४॥ पिष्टकिण्वोदकाद्यषु मद्याङ्गषु पृथग्भवेत् । शक्तः लेशो मदं कर्ता कायाङ्गेषु तु नास्ति सः ॥२५ । चैतन्योत्पत्यभिव्यक्तो चतु तेभ्य इच्छताम् । तेलस्य सिकतादिभ्यो व्यक्त्युत्पत्ती न किं मते ॥२६॥ अनादिनिधनो जन्तुरेति गत्यन्तरादिह । याति गत्यन्तरं चातो निजकर्मवशो भवे ।२७।। एतावानेव पुरुषो योवान्प्रत्यक्षगोचरः । इत्यादिरपसंवादः स्वपराहितवादिनाम् ॥२८॥ न संविझात्रमात्मा स्यासंवित्तो क्षणिकात्मनि । अनुसन्धानधीलोपं व्यवहारविलोपतः ॥२९॥ द्रव्यभूतः स्वयं जीवो ज्ञाता द्रष्टास्ति कारकः । मोक्ता मोक्ता व्ययोत्पादध्रौव्यवान् गुणवान् सदा ॥३०॥ असंख्यातप्रदेशात्मा ससंहारविसर्पणः । स्वशरीरप्रमाणस्तु मुक्तवर्णादिविंशतिः ॥३॥
से दो प्रकारका है ॥२०॥ जीव, अजोव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं; इनका अपने-अपने लक्षणोंसे श्रद्धान करना चाहिए ।।२२। जीवका लेक्षण उपयोग है और वह उपयोग आठ प्रकारका है। उपयोगके आठ भेदों में मति, श्रत और अवधि ये तीन, सम्यग्ज्ञान तथा मिथ्याज्ञान-दोनों रूप होते हैं ।।२२।। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख और दुःख ये सब चिदात्मक हैं ये ही जीवके लक्षण है, क्योंकि इनसे ही चैतन्यरूप जीवकी पहचान होती है ।।२३।। पृथिवी आदि भूतोंकी आकृति मात्रको जीव नहीं कहते; क्योंकि वह तो इसके शरीरको अवस्था है। शरीरका चैतन्यके साथ अनेकान्त है अर्थात् शरीर यही रहा आता है और चैतन्य दूर हो जाता है ॥२४|| आटा, किण्व ( मदिराका बीज ) तथा पानी आदि मदिराके अंगोंमें मद उत्पन्न करने वाली शक्तिका अंश पृथक् होता है, परन्तु शरीरके अवयवोंमें चैतन्य शक्ति पृथक् नहीं होती। भावार्थ-आटा आदि मदिराके कारणोंको पृथक्-पृथक् कर देनेपर भी उनमें जिस प्रकार मादक शक्तिका कुछ अंश बना रहता है उस प्रकार शरीर के अंगोंको पृथक्-पृथक् करनेपर उनमें चैतन्य शक्तिका कुछ अंश नहीं रहता इससे सिद्ध होता है कि चैतन्य शरीरके अंगोंका धर्म नहीं है, किन्तु उनसे पृथक् द्रव्य है ॥२५।। जो पृथिवी आदि चार भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति अथवा अभिव्यक्ति मानते हैं उनके मतमें बालू आदिसे तेलको उत्पत्ति अश्वा अभिव्यक्ति क्यों नहीं मान ली जाती है ? भावार्थ-जिस प्रकार बालू आदिसे तेलको उत्पत्ति और अभिव्यक्ति नहीं ह सकती उसो प्रकार पृथिवी आदि चार भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति और अभिव्यक्ति नहीं हो सकती ॥२६॥ यह जीव इस संसारमें अनादि निधन है, निजकर्मसे परवश हुआ यह यहाँ दूसरी मतिसे आता है और कर्मके परवश हुआ दूसरी गतिको जाता है ।।२७॥ जितना यह प्रत्यक्ष गोचर दिखाई देता है इतना ही नीव है - अतोत अनागत कालमें इसकी सन्तति नहीं चलती इत्यादि कथन निज-परका अहित करनेवाले जीवोंका ही विरुद्ध कथन है ।।२८॥ क्षण-क्षणमें जो संविद् ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है उतना ही आत्मा है ऐसा कहना भी ठोक नहीं है, क्योंकि संवित्तिको क्षणिक मान लेनेपर आगे-पीछेको कड़ो जोड़नेवाली बुद्धिका लोप हो जायेगा और उसके लोप होनेपर लेने-देने तथा कर्ता-कर्म आदि व्यवहारका हो लोप हो जायेगा ।।२९। इससे सिद्ध होता है कि यह जीव स्वयं द्रव्यरूप है, ज्ञाता है, द्रष्टा है, कर्ता है, भोक्ता है, कर्मोका नाश करनेवाला है, उत्पाद-व्ययरूप है, सदा गुणोंसे सहित है, असंख्यात प्रदेशी है, संकोच विस्तार
१. भ्रान्तो म. । २. भवेत् ङ., म.। ३. सत्यभूतः म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org