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सप्तपञ्चाशः सर्गः
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दशषोडशभिस्तस्य सुवर्णमणिजातिमिः । यथास्थानं स्वयं चित्रं निर्माणममिराजते ॥१२५॥ तलं तिस्रो जगत्यश्च तत्र क्रोशार्धविस्तृताः। उपर्युपरि तत्र स्यात्परिहाणिश्च तावती ॥१२६॥ तासां वज्रमयी सिद्धिश्चित्ररत्नोज्ज्वला भुवाम् । यत्प्रभा शक्रचापानि तनोति परितः परा ॥१२७॥ उरोदना वरण्डास्ते भूषयन्ति ज्वलत्प्रमाः। जगतीर्यत्र राजन्ते कदल्यो धनुरन्तराः ॥१२८॥ त्रिंशदक्षमितैः' कूटैर्द्विगुणायतकोष्टकैः । द्विगुणैयते तासु दशदण्डान्तरास्थितैः ॥१२९॥ द्वौ द्वौ दौवारिकावासावभितः स्तस्तदन्तिके । यत्र वैश्रवणस्यार्थः प्रतिद्वारं प्रकाशते ।।१३०॥ कूटानां सप्तशत्यासु द्वासप्तत्यधिका क्रमात् । चत्वारिंशदष्टयुक्ता कोष्टकानां च सा गणिः ॥१३१॥ द्वाविंशतिशतान्याहुर्विशानि जगतीत्रये । कूटसंख्या समासेन कोष्ठकानां च तावती ॥१३२॥ एकाष्टलोकमीमगा नवैकद्विचतुर्भियः । षडस्तिखैकमङ्गाः स्युर्जगतीकेतवः क्रमात् ॥१३३।। वियद्योनिमीभङ्गश्रेणयः पूर्वकूटगाः । भूषण्मण्डगलव्योमखोरक्रमा मध्यकूटगाः ॥१३४॥ खाटाष्टचतुरस्त्यक्षीण्यन्तकूटगता ध्वजाः । कोष्टगास्तत्र तत्रामी माव्यन्ते ते द्विसंगुणाः ॥१३५॥ लक्षा षडशिंतिज्ञेयाः सहस्राणां च विंशतिः । षटपञ्चाशद्विशत्यामा तत्सर्वकदलीगणः ॥१३६॥ तत्र सस्वेददेशेषु मण्डपा रत्नमण्डिताः । द्वयेकगन्यूतविस्तारसमुत्सेधाश्चकासति ॥ १३७॥ तदर्धव्यासनिर्माणशिखरान्तरवासिनः । सन्ति सन्मङ्गलोद्भासि मूर्तयोर्चा जिनेश्वराः ॥१३॥
विचार करे तो वह भी नियमसे भूल कर जायेगा फिर अन्य मनुष्यको बात ही क्या है ? ॥१२४॥ उस नगरका निर्माण यथास्थान छब्बीस प्रकारके सवर्ण और मणियोंसे चित्र-विचित्र है अतः अत्यधिक सुशोभित होता है ।।१२५।। उसके तलभागमें तीन जगती रहती हैं जो आधा-आधा कोश चौड़ी होती हैं और ऊपर-ऊपर उन जगतियोंमें उतनी ही हानि होती जाती है ॥१२६।। उन जगतियोंकी रचना वज्रमयी एवं चित्र-विचित्र रत्नोंसे उज्ज्वल है और उनकी श्रेष्ठ कान्ति चारों ओर इन्द्रधनुषोंको विस्तृत करती रहती है ॥१२७॥ छाती प्रमाण ऊंचे तथा देदीप्यमान प्रभाके धारक बरण्डे उन जगतियोंको सुशोभित करते रहते हैं तथा उनपर एक धनुषके अन्तरसे स्थित सुशोभित पताकाएं हैं ॥१२८॥ उन जगतियोंमें तीस-तीस वितस्तियोंके कूट और उनसे द्विगुण आयामवाले दश-दश धनुषोंके अन्तरसे थित कोष्ठक रहते हैं ॥१२९॥ उन जगतियोंके समीप दोनों ओर द्वारपालोंके दो-दो आवासस्थान हैं जिनमें प्रत्येक द्वारपर कुबेरकी अपूर्व धनराशि प्रकाशमान है ।।१३०॥ प्रत्येक जगतीके कूटोंकी संख्या सात सौ बहत्तर है तथा कोष्ठकोंकी संख्या अड़तालीस है ॥१३॥ संक्षेपसे तीनों जगतियोंकी कूटसंख्या बाईस सौ बीस है और कोष्ठोंकी संख्या उसी प्रमाणसे है ।।१३२।। प्रथम जगतीमें बत्तीस हजार तीन सौ इक्यासी, दूसरीमें चौबीस हजार दो सौ उन्नीस और तीसरीमें इकतीस हजार छप्पन ध्वजाए रहती हैं ॥१३३।। पूर्व कूटोंमें दो लाख बत्तीस हजार चार सौ सत्तर, मध्यम कूटोंमें सात लाख इकसठ हजार एक सौ, और अन्तिम कूटोंमें दो लाख चौवन हजार आठ सौ अस्सी और कोष्ठकोंमें दूनी-दूनी हैं ॥१३४-१३५।। इस प्रकार समस्त ध्वजाओंकी संख्या छब्बीस लाख बीस हजार दो सौ छप्पन है ॥१३६॥ वहाँ सस्वेद-जलसिक्त प्रदेशों में रत्नोंसे मण्डित अनेक मण्डप हैं जो दो कोस चौडे और एक कोस ऊँचे हैं ।।१३७।। जिनकी रचना मण्डपोंसे आधी चौड़ी है, ऐसे शिखरोंके मध्य भागमें
१. वितस्ति ( ङ. टि.)। २. ३२३८१ । ३. २४२१९ । ४. ३१०५६ । ५. २३२४७० । ६. ७६११०० । ७. २५४८८० । भूपदेन सप्त, षट्पदेन षट, मण्ड: पिच्छवाची तेन एकः, गल: कण्ठवाची तेन एकः, व्योमखपदाभ्यां शन्यद्वयम्, यद्यपि सर्वत्र अङ्कानां वामतो गतिरिति नियम: तथापि अत्र उत्क्रमशब्देन उपरि उल्लेखः तेन पूर्वोक्ता संख्या निःसरति । ८. अमा-सह । ९. संस्वेददेशेषु म. ।
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