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हरिवंशपुराणे बाह्याः सप्तदश न्यस्ता गव्यूतवृतमेकतः । कर्णिकाथ तदन्तस्था ज्ञेया सार्वत्रियोजना ॥१०९॥ परिवेष इवाक यः परिधिः' परिवेष्टते । चित्ररत्नमयोऽन्तस्थं मासुरं परिमण्डलम् ॥११०॥ निर्मित्सानन्तरं भर्तुर्वजस्योत्पद्यते पुरम् । दिव्यं तत्र प्रभावो हि मनसा ज्ञायिना महान् ॥१११॥ त्रिलोकसारं श्रीकान्तं श्रीप्रभं शिवमन्दिरम् । त्रिलोकीलोककान्तिश्री श्रीपुरं त्रिदशप्रियम् ॥११२॥ लोकालोकप्रकाशा द्यौरुदयोऽभ्युदयावहम् । क्षेमं क्षेमपुरं पुण्यं पुण्याहं पुष्पकास्पदम् ॥११३॥ भुवः स्वर्भूस्तपः गत्यं लोकालोकोत्तमं रुचिः । रुचावहमुदारधिं दानधर्मपुरं परम् ॥११॥ श्रेयः श्रेयस्करस्तीथं तीर्थावहमदग्रहम् । विशालचित्रकूट धीश्रीधरं च त्रिविष्टपम् ॥११५॥ मङ्गलोत्तमकल्याणशरणादिपुराणि पूः । जयापराजितादित्यजयन्त्यचलसंपुरम् ॥१६॥ विजयं तं जयन्तामं विमलं विमलप्रभम् । कामभूगगनामोगं कल्याणं कलिनाशनम् ॥१७॥ पवित्रं पञ्चकल्याणं पद्मावतः प्रमोदयः । पराय॑मण्डिता वासी महेन्द्र महिमालयम् ॥११८॥ स्वायम्भुवं सुधाधात्री शुद्धावासः सुखावती । विरजा वीतशोकार्थविमला विनयावनिः ॥११९॥ भूतधात्री पुराकल्पः पुराणं पुण्यसंचयः । ऋषीवती यमवती रस्नवत्याजरामरा ॥१२॥ प्रतिष्ठा ब्रह्मनिष्टोवों केतुमालिन्यरिन्दमम् । मनोरमं तमःपारमरस्नीरत्नसंचयम् ॥१२॥ अयोध्यामृतधानीति समं ब्रह्मपुराख्यया । जाताह्वयमुदात्तार्थ तस्कल्पज्ञेरुदोर्यते ॥१२२॥ अथ त्रैलोक्यसारैकसंदोहमयमद्भुतम् । माति भर्तृप्रभावोत्थं तत्पदं बहुविस्मयम् ॥१२३॥ कृतावधानस्तत्सिद्धिं भूयः स्रष्टापि चिन्तयन् । ध्रुवं मोमुह्यतेऽन्यस्य तथा चेत्तत्र का कथा ॥१२४॥
और उसके मण्डलकी भूमिको बचाकर मनुष्य तथा देव प्रदक्षिणा देते रहते हैं ।।१०८|| इस परिधिमें बाहरकी ओर सत्रह कणिकाए हैं जो एक-एक कोश विस्तत हैं और भीतरकी ओर एक कर्णिका है जो साढ़े तीन योजन विस्तारवाली है ( ? )॥१०९॥ जिस प्रकार परिवेश सूर्यको घेरता है उसी प्रकार चित्र-विचित्र रत्नोंसे निर्मित यह परिधि भीतरके देदीप्यमान मण्डलको घेरे रहती है ॥११०॥ वहां गणधर देवकी इच्छा करते ही एक दिव्य पुर बन जाता है सो ठीक ही है क्योंकि मनःपर्यय ज्ञानके धारक जीवोंका प्रभाव महान् होता है ॥१११॥ वह पुर कल्पके ज्ञाता मनुष्यके द्वारा त्रिलोकसार, श्रीकान्त, श्रीप्रभु, शिवमन्दिर, त्रिलोकीश्री, लोककान्तिश्री, श्रीपुर, त्रिदशप्रिय, लोकालोकप्रकाशाद्यौ, उदय, अभ्युदयावह, क्षेम, क्षेमपुर, पुण्य, पुण्याह, पुष्पकास्पद, भुवःस्वर्भूः, तपःसत्य, लोकालोकोत्तम, रुचि, रुचादह, उदाद्धि, दानधर्मपुर, श्रेय, श्रेयस्कर, तीर्थ, तीर्थावह, उदग्रह, विशाल, चित्रकूट, धीश्रीधर, त्रिविष्टप, मंगलपुर, उत्तमपुर, कल्याणपुर, शरणपुर, जयपुरी, अपराजितापुरी, आदित्यपुरी, जयन्तीपुरी, अचलसंपुर, विजयन्त, विमल, विमलप्रभ, कामभू, गगनाभोग, कल्याण, कलिनाशन, पवित्र, पंचकल्याण, पद्मावत, प्रभोदय, पराध्यं, मण्डितावास, महेन्द्र, महिमालय, स्वायम्भुव, सुधाधात्री, शुद्धावास, सुखावती, विरजा, वीतशोका, अर्थविमला, विनयावनि, भूतधात्री, पुराकल्प, पुराण, पुण्यसंचय, ऋषीवती, यमवती, रत्नवती, अजरामरा, प्रतिष्ठा, ब्रह्मनिष्ठोर्वी, केतुमालिनी, अरिन्दम, मनोरम, तमःपार, अरत्नी, रत्नसंचय, अयोध्या, अमृतधानी, ब्रह्मपुर, जाताह्वय और उदात्तार्थ नामसे कहा जाता है ॥११२-१२२॥ भगवान के प्रभावसे उत्पन्न वह नगर, तीन लोकके समस्त श्रेष्ठ पदार्थों के समूहसे युक्त, आश्चर्यस्वरूप एवं बहुत भारी आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ सुशोभित होता है ।।१२३॥ उसका बनानेवाला कुबेर भी एकाग्रचित्त हो उसके बनानेका पुनः
१. परिधेः म., ङ.। २. परिवेष्ठयते म., परिविष्यते ङ.। ३. महत् म.। ४. रिषीवती क., ङ.। ५. केतुमालिन्यनिन्दितम् म.। ६. ब्रह्मपराख्यया क., ङ.।
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