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सप्तपञ्चाशः सर्गः
अधोवेत्रासनाकारा झल्लरीसममध्यगाः । उर्व मृदङ्गसंस्थानाः स्वान्ततालामनालिकाः ॥९५।। स्वच्छस्फटिकरूपास्ते सुव्यक्तान्तनिदेशकाः । दृश्यते लोकविन्यांसो यत्रादर्शतले यथा ॥२६॥ मध्यलोकस्वरूपान्तर्व्यक्तनिर्माणमूर्तयः । मध्यलोका इति ख्याताः सन्ति स्तूपास्ततः परे ॥९॥ मन्दरस्तूपनामानो मन्दराकारमास्वराः । चतुःकाण्डचतुर्दिक्ष चैत्या भान्ति ततोऽपरे ॥९८१ ततोऽन्तःकल्पवासाख्याः कल्पवासिनिवेशिनः । स्तूपास्ते कल्पवासद्धिं साक्षात्कुर्वन्ति पश्यताम् ॥९९।। ग्रेवेयकपरास्तेऽन्ये नाम्ना स्तूपास्तथाविधाः । ततो ग्रैवेयकाभिख्यां दर्शयन्तीव मानवान् ॥१०॥ नवानुदिशनामानस्ततः स्तूपा विराजते । नवानुदिशमध्यक्ष पश्यन्ते यत्र प्राणिनः ॥१०॥ विजयादिचतुर्दिका विमानोद्भासिनस्ततः । सर्वार्थदायिनः सन्ति स्तूपाः सर्वार्थसिद्धयः ॥१०॥ सिद्धस्तूपाः प्रकाशन्ते ततोऽन्ये स्फटिकामलाः । यत्रैव दर्पणच्छाया दृश्यते सिद्धरूपभाक् ।।१०३|| मव्यकूटाख्यया स्तूपा भास्वत्कूटास्ततोऽपरे । यानभव्या न पश्यन्ति प्रभावान्धीकृतेक्षणाः ॥१०॥ प्रमोहा नाम सन्त्यन्ये स्तूपा यत्र प्रमोहिताः । विस्मरन्ति यथाग्राहं चिराभ्यस्तं च देहिनः ॥१०५।। प्रबोधाख्या भवन्त्यन्ये स्तूपा यत्र प्रबोधिताः । तत्त्वमासाद्य संसारान्मुच्यन्ते साधवो ध्रुवम् ॥१०६॥ एवमन्योऽन्यसंसक्तवेदिकातोरणोज्ज्वलाः । दश स्तूपाः समुत्तुङ्गाः राजन्त्यापरिधेः क्रमात् ॥१०॥ ततोऽस्ति क्रोशविस्तार परिधिर्धनुरुच्छितिः । यत्र मण्डलभूवायं परियन्ति नरामराः ।।१०।।
फहराती रहती हैं, तथा जो एक योजन ऊंचे रहते हैं ।।९४॥ ये लोकस्तूप, नीचे वेत्रासनके समान, मध्यमें झालरके समान, ऊपर मृदंगके समान और अन्तमें तालवृक्षके समान लम्बी नालिकासे सहित हैं ॥९५।। इनका स्वच्छ स्फटिकके समान रूप होता है, अतः इनके भीतरकी रचना अत्यन्त स्पष्ट रहती है। इन स्तूपों में लोककी रचना दर्पणतलके समान स्पष्ट दिखाई देती है ॥९६।। इन स्तूपोंके आगे मध्यलोक नामसे प्रसिद्ध स्तूप हैं जिनके भीतर मध्यलोककी रचना स्पष्ट दिखती है॥९७|| आगे मन्दराचलके समान देदीप्यमान मन्दर नामके स्तुप हैं जिनपर चारों दिशाओंमें भगवान्की प्रतिमाएं सुशोभित हैं ॥९८।। उनके आगे कल्पवासियोंकी रचनासे युक्त कल्पवास नामक स्तूप हैं जो देखनेवालोंको कल्पवासी देवोंकी विभूति साक्षात् दिखाते हैं ।।९९|| उनके आगे ग्रैवेयकोंके समान आकारवाले ग्रैवेयक स्तप हैं जो मनुष्यों को मानो ग्रेवेयकोंकी शोभा ही दिखाते रहते हैं ॥१००|| उनके आगे अनुदिश नामके नौ स्तूप सुशोभित हैं जिनमें प्राणी नौ अनुदिशोंको प्रत्यक्ष देखते हैं ॥१०१।। आगे चलकर जो चारों दिशाओं में विजय आदि विमानोंसे सुशोभित हैं ऐसे समस्त प्रयो नोंको सिद्ध करनेवाले सर्वार्थसिद्धि नामके स्तूप हैं ॥१०२॥ वनके आगे स्फटिकके समान निर्मल सिद्धस्तूप प्रकाशमान हैं जिनमें सिद्धोंके स्वरूपको प्रकट करनेवाली दर्पणोंकी छाया दिखाई देती है ॥१०३।। उनके आगे देदीप्यमान शिखरोंसे युक्त भव्यकूट नामके स्तूप रहते हैं जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते क्योंकि उनके प्रभावसे उनके नेत्र अन्धे हो जाते हैं ॥१०४॥ उनके आगे प्रमोह नामके स्तूप हैं जिन्हें देखकर लोग अत्यधिक विभ्रममें पड़ जाते हैं और चिरकालसे अभ्यस्त गृहीत वस्तुको भी भूल जाते हैं ।।१०५।। आगे चलकर प्रबोध नामके अन्य स्तूप हैं जिन्हें देखकर लोग प्रबोधको प्राप्त हो जाते हैं और तत्त्वको प्राप्त कर साधु हो निश्चित हो संसारसे छूट जाते हैं ।।१०६।। इस प्रकार जिनकी वेदिकाए एक दूसरेसे सटी हुई हैं तथा जो तोरणोंसे समुद्भासित हैं ऐसे अत्यन्त ऊँचे दशस्तूप क्रम-क्रमसे परिधि तक सुशोभित हैं ॥१०७। इसके आगे एक कोट रहता है जो एक कोश चौड़ा तथा एक धनुष ऊंचा होता है १. नवानुदिश अध्यक्षं घ., म. । नवानुदिशनामानि ड.। नवानामनुदिशानां समाहारो नवानुदिश ग. । २. यत्र पश्यन्ति प्राणिनः इति पाठः सुष्ठ प्रतिभाति । ३. चतुर्दिक्ष ग., ख. । ४. सिद्धिदाः म. । ५. यथाग्राह्य ङ. । ६. मुच्यते म.। ७. राजन्त्या: परिधेः म.। ८. विस्तारं म. ।
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