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हरिवंशपुराणे
सचतुर्गों पुरातोऽन्तर्वेदिका वनपाततः । तोरणान्तरिताः सार्वाः स्तूपा नव नवाध्वसु ॥ ५४ ॥ पद्मरागमहास्तूपपर्यंन्तेषु सभागृहाः । हेमरत्नमयाचिंत्रा मुनिदेवगणोचिताः ॥ ५५ ॥ नमःस्फटिकनिर्माणस्ततः सालस्तृतीयकः । चतुश्चिश्रमहारत्न सप्तभूमिकगोपुरः ॥५६॥ विजय विश्रुतं कीर्तिविमलोदयविश्वध्रुक् । वासवीर्यं वरं चेति पूर्वाख्या ख्यापिताष्टधा ॥५७॥ ● बैजयन्तं शिवं ज्येष्ठं वरिष्ठानवधारणम् । याम्यमप्रतिघं चेति दक्षिणाख्याष्टधा मताः ॥ ५८ ॥ जयन्तामितसारं च सुधामाक्षोभ्य सुप्रभम् । वरुणं वरदं चेति पश्चिमाख्याष्टधा स्मृताः ॥५९॥ अपराजितम चख्यमतुलार्थममोधकम् । उदयं चाक्षयं दोदक्कौबेरं पूर्णकामकम् ॥६०॥ सुरत्नासनमध्यस्था द्रष्टृणां भवदर्शिनः । तद्द्वारोमयपार्श्वेषु भान्ति मङ्गलदर्पणाः ॥ ६१ ॥ यैः प्रध्वस्तमहाध्वान्तप्रमावलय भास्वरैः । भास्वतो भासमुद्भूय भासन्ते गोपुराण्यलम् ॥६२॥ विजयादिपुरद्वाःसु द्वाःस्थास्तिष्ठन्ति कल्पजाः । यथायथं ज्वलद्भूषा जयकल्याणकारिणः ॥ ६३॥ शालास्त्रयोऽप्यमी त्वेकद्वित्रिक्रोशोच्छ्रयोन्मिताः । मूलमध्योपरिष्या सैस्तदर्धार्धसुसंमिताः ॥६४॥ स्वरस्नित्रयहीनोक्तप्रमाणजगतीतलाः । 'हस्तोद्विद्वाक्षं विस्तीर्णव्यामार्धकपिशीर्षकाः ॥ ६५ ॥ ततोऽप्यन्तर्वणं नानातरुवल्लीगृहाकुलम् । मञ्चप्रेङ्खागिरिप्रेक्षागृह कोटिविराजितम् ॥ ६६ ॥ वेदिकाबद्धवीथीषु कल्याणादिजयाजिरम् । कदल्यः कदलीकल्पाः प्रकाशन्तेऽन्तरस्थिताः ॥६७॥
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की प्रतिमाओंसे युक्त, दो-दो सिद्धार्थं वृक्षोंसे सहित कल्पवृक्षोंका वन वीथियोंके अन्त में यथारीति स्थित हैं || ५३ ॥ तदनन्तर चार गोपुरोंसे सहित, वनकी रक्षा करनेवाली अन्तर्वेदिका है और मार्गों में तोरणोंसे युक्त, सबका भला करनेवाले नौ-नो स्तूप हैं ॥५४॥ वे स्तूप पद्मराग मणियोंसे निर्मित होते हैं तथा उनके समीप स्वर्ण और रत्नोंके बने, मुनियों और देवोंके योग्य नाना प्रकारके सभागृह रहते हैं || ५५ || सभागृहोंके आगे आकाशस्फटिक मणिसे बना, नाना प्रकारके महारत्नोंसे निर्मित सात खण्डवाले चार गोपुरोंसे सुशोभित तीसरा कोट है ॥ ५६ ॥ इस कोटके पूर्वं द्वारके विजय, विश्रुत, कीर्ति, विमल, उदय, विश्वधुक्, वासवीर्यं और वर ये आठ नाम प्रसिद्ध हैं ||१७|| दक्षिण द्वारके वैजयन्त, शिव, ज्येष्ठ, वरिष्ठ, अनघ, धारण, याम्य और अप्रतिघ ये आठ नाम कहे गये हैं ||५८ || पश्चिम द्वारके जयन्त, अमितसार, सुधाम, अक्षोभ्य, सुप्रभ, वरुण और वरद ये आठ नाम स्मरण किये गये हैं ||५९ ॥ और उत्तर द्वारके अपराजित, अर्थ, अतुलार्थ, उदक, अमोघक, उदय, अक्षय और पूर्णकामक ये आठ नाम हैं ||६०|| उन द्वारोंके पसवाड़ोंमें उत्तम रत्नमय आसनोंके मध्य में स्थित मंगलरूप दर्पण सुशोभित हैं जो देखनेवालोंके पूर्वं भव दिखलाते हैं ||६१॥ ये दर्पण गाढ़ अन्धकारको नष्ट करनेवाले कान्तिके समूह से सदा देदीप्यमान रहते हैं और उनसे गोपुर सूर्यको प्रभाको तिरस्कृत कर अतिशय शोभायमान होते हैं ||६२|| विजयादिक गोपुरों में यथायोग्य 'जय हो' 'कल्याण हो' इन शब्दोंका उच्चारण करनेवाले एवं देदीप्यमान आभूषणोंसे युक्त कल्पवासी देव द्वारपाल रहते हैं ||६३|| ये तीनों कोट एक कोश, दो कोश और तीन कोश ऊँचे होते हैं तथा मूल, मध्य और ऊपरी भागमें इनकी चौड़ाई ऊँचाईसे आधी होती है ॥६४॥ इन कोटोंके जगतीतलों का प्रमाण अपनी ऊंचाईसे तीन हाथ कम कहा गया है और उनके ऊपर बने हुए बन्दरके शिरके आकारके कंगूरे एक हाथ तथा एक वितस्ति चौड़े और आधा वेमा ऊँचे कहे गये हैं || ६५ ॥ उसके आगे नाना वृक्षों और लतागृहोंसे व्याप्त, मंच, प्रेागिरि और प्रेक्षागृहोंसे सुशोभित अन्तर्वण है || ६६ || वेदिकाओंसे बद्ध वीथियोंके बीचमें कल्याणजय नामका आंगन है और उसमें शाल्मली वृक्षके समान ऊँचे एवं अन्तरसे स्थित केला
१. वनपाठतः म. (?) । २. चित्रमुनि - म । ३. चतुचित्रा म । ४. वैजयन्त्यम् । ५. परिन्यासै - म., क., ङ. । ६. हस्तोद्विद्वाक्ष म । ७ विस्तीर्णाक्षान्तराः म., ख । ८. व्यासार्ध ख ।
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