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हरिवंशपुराणे मणितोरणपाद्वेषु गोपुराणां स्फुरत्विषाम् । छत्रचामरभृङ्गारपूर्वाष्टशतकान्यमान् ॥२६॥ तगोपुरपुरो मान्ति प्रेक्षाशालास्त्रिभूमिकाः । द्विर्वीिथ्यंतयोनूस्यद्वात्रिंशत्सुरकन्यकाः ॥२७॥ भात्यशोकवनं प्राच्या सप्तवर्णवनं स्वपाक् । प्रतीच्यां चम्पकवनमुदीच्यामाम्रसद्वनम् ॥२०॥ ससिद्धप्रतिमोऽशोकः सप्तपर्णश्च चम्पकम् । तथैवाम्रतरुस्तेषां वनानामधिपाः क्रमात् ॥२९॥ त्रिकोणाः मण्डलाकाराश्चतुरस्नाश्च वापिकाः । वनेषु रस्नेत व्यन्ताशुद्धस्फटिकभूमयः ॥३०॥ विश्वाः सतोरणाः लक्ष्यास्तीर्थ्यास्तूच्चैर्वराण्डकैः । मण्डितागाहमानेष्वगाधा द्विक्रोशविस्तृताः ॥३१॥ नन्दा नन्दोत्तरानन्दानन्दवत्यमिनन्दिनी । नन्दघोषेत्यमूर्वाप्यः षडशोकवनस्थिताः ॥१२॥ विजयाभिजया जैत्री वैजयन्त्यपराजिताः । जयोत्तरेति षड्वाप्यः सप्तपर्णवनाश्रिताः ॥३३॥ कुमुदा नलिनी पद्मा पुष्करा विकचोपला । कमलेल्यपि षड्वाप्यश्चम्पकाख्यवने मताः ॥३४॥ प्रभासा मास्वती मासा सुप्रमा भानुमालिनी। स्वयंप्रभेति षड्वाप्यः सहकारवनोदिताः ॥३५॥ उदयो विजयः प्रीतिः ख्यातिश्चेति क्रमोदितैः । फलैः पूर्वादयो वाप्यः पूज्यन्ते तत्फलार्थिभिः ॥३६॥ तद्वापीपुष्पसंदोहं यथोक्तं प्राप्य भाक्तिकाः । आस्तूपं क्रमशोभ्यर्च्य विशन्ति क्रमकोविदाः ॥३७॥ अन्तरेणोदयं प्रीति चाभितस्त्रिभुवोऽध्वसु । मान्ति नाटकशालास्ता हाटकोज्ज्वलमूर्तयः ॥३८॥ अध्यर्धक्रोशविस्तारा द्वात्रिंशज्योतिषां स्त्रियः । तद्भुवो रस्ननिर्माणाः स्वच्छस्फटिकभित्तयः ॥३९॥
व्यक्तियोंको दूर हटाते रहते हैं तथा जिनके हाथ मुद्गरोंसे उद्धत होते हैं ॥२५॥ देदीप्यमान कान्तिसे युक्त उन गोपुरोंके मणिमय तोरणोंकी दोनों ओर छत्र, चमर तथा शृंगार आदि अष्टमंगल द्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठ संख्यामें सदा सुशोभित रहते हैं ॥२६॥ उन गोपुरोंके आगे वीथियोंकी दोनों ओर तीन-तीन खण्डकी दो-दो नाट्यशालाएँ हैं जिनमें बत्तीस-बत्तीस देव-कन्याएं नृत्य करती हैं ।।२७।। तदनन्तर पूर्वदिशामें अशोक वन, दक्षिणमें सप्तपर्ण वन, पश्चिममें चम्पक वन और उत्तरमें आम्रवन सुशोभित है ॥२८॥ इन चारों वनोंमें अशोक वनका अशोक वक्ष सप्तपर्ण वनका सप्तपर्ण वृक्ष, चम्पक वनका चम्पक वृक्ष और आम्रवनका आम्रवृक्ष स्वामी हैं। ये स्वामी वृक्ष सिद्धकी प्रतिमाओंसे सहित हैं अर्थात् इनके नीचे सिद्धोंकी प्रतिमाएं विराजमान रहती हैं ॥२९|| उन वनोंमें तिकोनी, चौकोनी और गोलाकार अनेक वापिकाएं हैं। उन वापिकाओंके तट रत्ननिर्मित हैं तथा उनकी भूमि शुद्ध स्फटिकसे निर्मित है। ये सभी वापिकाएं तोरणोंसे युक्त हैं, दर्शनीय हैं, सीढ़ियोंसे युक्त हैं, ऊँचे-ऊंचे बरण्डोंसे सुशोभित हैं, प्रवेश करनेमें गहरी हैं और दो कोश चौड़ी हैं ॥३०-३१।। नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा, नन्दवती, अभिनन्दिनी, और नन्दघोषा ये छह वापिकाएँ अशोक वनमें स्थित हैं ॥३२॥ विजया, अभिजया, जेत्री, वैजयन्ती, अपराजिता और जयोत्तरा ये छह वापिकाएँ सप्तपर्ण वनमें स्थित हैं ॥३३।। कुमुदा, नलिनी, पद्मा, पुष्करा, विश्वोत्पला और कमला ये छह वापियाँ चम्पक वनमें मानी गयी हैं ॥३४।। और प्रभासा, भास्वतो, भासा, सुप्रभा, भानुमालिनी और स्वयंप्रभा ये छह वापियां आम्रवनमें कही गयी हैं ।।३५।। पूर्व आदि दिशाओंकी वापिकाएं क्रमसे उदय, विजय, प्रीति और ख्याति नामक फल देती हैं तथा इन फलोंके इच्छुक मनुष्य इन नापिकाओंकी पूजा करते हैं ॥३६॥ क्रमके जाननेवाले भक्तजन उन वापिकाओंसे यथोक्त फूलोंका समूह प्राप्त कर स्तूपों तक क्रम-क्रमसे जिनेन्द्र प्रतिमाओंकी पूजा करते हुए आगे प्रवेश करते हैं ॥३७॥ उदय और प्रीतिरूप फलको देनेवाली वापिकाओंके बीचके मार्गके दोनों ओर तीन खण्डको सुवर्णमय देदीप्यमान बत्तीस नाट्यशालाएं है ॥३८|| ये नाट्यशालाएं डेढ़ कोश चौड़ी हैं,
१. ससिद्धप्रतिमाशोकः म. । २. रत्नतद्योना म. । ३. वाराण्डकैः ङ.। अण्डकः हंसादिपक्षिभिः ङ. ठि. ।
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